Monday, September 3, 2007

हिन्दी ...







छोटा था ... टाट पट्टी वाले स्कूल में तो नहीं लेकिन किसी कॉन्वेंन्ट में भी पढ़ाई नहीं की ... नतीजतन अंग्रेजी में थोड़ी मात खाता रहा। भाई -बहन ने वक्त की नजाकत को समझते हुए लाल किताब ( रेन एंड मार्टिन ) का दामन थामा और मैं भटक गया हंस में ... क्रांति और अपनी भाषा का भ्रमजाल ... उलझा रहा ... बाद में देखा तो पाया कि हिन्दी का दरबार सजाने वाले राजेन्द्र यादव, नामवर जी सरीखे लोगों ने भी हिन्दी को ड्राइंग रूम तक सीमित रखा उनके बेड रूम में अंग्रेजी ही मौजूद थी ... किसी के बच्चे हिन्दीधारी नहीं बने ( धारी शब्द खुद की उपज है) ... खैर मेरा ये प्रयास कतई नहीं है कि हमारी हिन्दी पिछड़ी है ... लेकिन ये आपको मानना है कि आज अंग्रेजी प्रगति का द्योतक बन चुकी है ... आप अंग्रेजी में बांग न दें, लेकिन जरूरत पड़ने पर अगर आपने ये ट्रेन छोड़ी तो पैसों की रेल आपसे जरूर छूट जाएगी ... यकीन न हो तो हिन्दी चैनलों का माहौल देख लीजिए भले ही आपकी हिन्दी बहुत अच्छी हो, लेकिन तरक्की उसको मिलेगी जो बॉस के साथ अंग्रेजी में चोंच मिला सके। जिसके हाथ हिन्दी के की बोर्ड पर भले न चलें लेकिन जबान गज भर बाहर रहे ... जो काम न करे लेकिन बात बात पर ओ शिट ओ माई गॉड के मंत्रों का जाप करता रहे ... जो मेल लिखने के लिए रोमन का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दी की लिपि को मारने में अपना पूरा योगदान करते हैं ... और हमारे हिन्दी के पुरोधा सब जानने के बावजूद हमें तो भाषण देते हैं लेकिन अपना घर कभी ठीक नहीं करते ... चाहते हैं भगत सिंह पैदा हो लेकिन पड़ोसी के घर में ... जानता हूं मैं भी भ्रमित हूं ... शायद कुंठित भी
इसलिए आप दिखावे पर मत जाईये और अपनी अक्ल लगाईये !!!!

3 comments:

अनिल रघुराज said...

सुंदर ख्याल हैं। हकीकत बयां करते हैं।

संजय शर्मा said...

Ati sundar bhai,Ess Tewar ko banaye rakhen,hamala jaari rahe jeet apani hi hogi kyonki udhar Hizaron ki fauz khadi hai.

weekly hamala hota rahe.Anil Bhai bhi essi Tewar ke hai.Apani to bas yehi buri aadat hai ummid nahi chhodte.Aadhar shila rakhi jaaye Neev ka pathar banane se kaun rok sakta hai.
ant me tewar ko Salaam!
Thanks for goodness in Both artile.

अव्यक्त शशि said...

11 September, 2007 2:15 PM


अव्यक्त शशि ने कहा…
अनुराग भाई,
हमने तो प्राथमिक शिक्षा भी टाट-पट्टी वाले स्कूल में ही पाई थी. अंग्रेजी को एक चुनौती की तरह लेते रहे इसलिए इस भाषा का मर्म थोड़ा-बहुत जान पाए हैं. इससे भागे नहीं क्योंकि समय रहते इसकी माया समझ में आ गई थी.

आपकी शंकाओं का निवारण करना चाहता हूँ. एक दिलचस्प वाक़या सुनाता हूँ. दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थिति तो आप परिचित ही होंगे. स्नातक स्तर तक तो हिंदी-अंग्रेजी का विभाजन खुलकर सामने नहीं आता लेकिन स्नातकोत्तर स्तर पर जाकर हिंदी माध्यम वाले कितना ठगा सा महसूस करते हैं ये आपको उनका हिस्सा बनकर ही पता चलेगा. 100 में से 40 और कई बार इससे अधिक लोग इसी माध्यम के सहारे एक प्रवेश परीक्षा के माध्यम से चुनकर आते हैं.

व्यक्तिगत तौर पर मैंने अपने लिए अंग्रेजी को हैंडीकैप नहीं बनने दिया लेकिन बाँकी सैकड़ों लोगों की स्थिति समझी जा सकती थी. कक्षा में कई चीजें जानते हुए भी चुप रह जाना. किसी प्रोफेसर को अपनी बात समझाने के लिए टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोलकर सहपाठियों के बीच हँसी का पात्र बनना. यह सब एक परंपरा थी. कक्षा में उनकी अनुपस्थिति या एमए में दो साल तक दिन-रात घिसटने के बाद चालीस प्रतिशत अंक लेकर घूमते इन लोगों को देखकर मैंने और एक अन्य मित्र ने मिलकर "हिंदी माध्यम विद्यार्थी मंच" की स्थापना की थी.

यह एक हिंदी मन का दर्द ही था कि एमए का मेरा लघु शोध पत्र तक "दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम के छात्रों की स्थिति: संरचनात्मक असमानता और मान्यता का प्रश्न" विषय पर था जो शायद राजनीतिविज्ञान विभाग के किसी फ़ाइल में धूल फाँक रहा होगा या कचरा निपटान प्रक्रिया का शिकार हो चुका होगा.

हिंदी माध्यम विद्यार्थी मंच जब एक सशक्त आंदोलन बनकर उभरने की स्थिति में था तभी राजभाषा के लिए संघर्ष (?) कर रहे एक संगठन ने बीच में टांग अड़ा दिया. यह संगठन विश्वविद्यालय में हिंदी के कुछ ठेकेदार शिक्षकों-प्रशासकों का था जो इसी के नाम पर मिलने वाले फंडों पर गुलछर्रे उड़ाते थे. ये न्यूयार्क और मॉरीशस की सैर कर विदेशी मदिरा की खुशबू से बौराकर हिंदी की क्षमताओं और उसके हक के बारे में गलथेथरी करने वाले या फिर सभागार के माहौल के हिसाब से उसका मरसिया पढ़ने वाले लोग ही थे.

हिंदी माध्यम विद्यार्थी मंच के अध्यक्ष बालेन्द्र कुमार को धमकियाँ तक मिलनी शुरु हो गईं.

इसी बीच अपने शोध के दौरान हिंदी के प्रोफेसरों, जानकारों, लेखकों, अनुवादकों, प्रशासकों और प्रकाशकों तक से बातचीत और सैंपल सर्वे से जो बात सामने आई उसने मेरी आँखें खोल दी.

वैसे ही जैसे आपने राजेंद्र यादव या नामवर सिंह जी के हवाले से कुछ बातें कही हैं.

संविधान की प्रस्तावना में अवसर की समानता की बात कही गई है लेकिन शिक्षा और इसके माध्यम (मेरा तात्पर्य भाषा से है) को लेकर जिस तरह की व्यवस्था हमारे यहाँ चली आ रही है वह अवसर की समानता की इस संवैधानिक भावना के बिल्कुल विपरीत है.

विभिन्न शिक्षाविदों के शोध से यह बात सामने आ चुकी है कि बच्चा शुरु से ही दो या तीन अलग-अलग भाषाओं को एक साथ आत्मसात कर सकता है. मैंने व्यवस्था से इसी चीज की अपेक्षा की है. मुझे इस विषय में वे कुछ बाते याद आ रही हैं जो दार्शनिक रूसो ने "रची गई असमानता" के बारे में कही हैं. स्थानाभाव और समयाभाव के चलते फिर कभी इसे विस्तार दूंगा.

आपके सामने दो विकल्प हैं- अंग्रेजी का रोना रोते हुए अपने जख़्मों को सहलाते रहिए और गाहे-बगाहे कुछ आक्रोशपूर्ण शब्दों की सहायता से इसका मरियल खून निकालते रहिए. चूँकि किसी त्वरित क्रांति के ज़रिए कोई भी भाषा विकास की प्रक्रिया में अपनी जगह नहीं बना पाई है इसलिए झंडा बुलंद करने की सलाह नहीं दूंगा.

दूसरा विकल्प यह कि देश को करोड़ों होनहारों से अलग यदि आपके वश में हो तो अपने बूते जितनी हो सके उतनी भाषाएँ सीखिए. पाब्लो नेरूदा और ब्रेख्त को पढ़ने का आनंद स्पेनिश और जर्मन में लीजिए या फिर सार्त्र को फ्रेंच में पढ़ने का लुत्फ़ उठाइये. और जैसा कि आपने स्वयं कहा, रेन और मार्टिन की सहायता से अंग्रेजी तो कम से कम सीख ही लिजीए. वरना प्रमोशन तो क्या सभ्य(?)लोगों की ज़मात तक में बैठना तक मुश्किल हो जाएगा