Tuesday, May 20, 2008
खत्म हुई तेंडुलकर की पारी ... 1928-2008
खामोश ... अदालत जारी है ... ये अदालत है सच की ... ये अदालत है एक निडर शख्स की ... यहां उसकी मौत पर भी रोना मना है ... नहीं तो घासीराम कोतवाल हवालात में बंद कर देगा ...
पर विजय आज आपकी अदालत में हुक्मउदली होगी ... आज हम यहां चीखेंगे ...
दिमाग हुक्म मानता है ... पर आंखें कभी किसी की गुलाम हुई हैं ...
वो देखती हैं ... आपका जाना उन्हें खटक रहा है ... सवाल दिल में उमड़ रहे हैं अब कौन उस शिद्दत से कह सकेगा कि मैं अगले जन्म में भी लेखक ही बनना चाहूंगा ...
यकीनन ये जवाब सच का था ... उस निर्भीक शख्स का था जो चौदह साल की उम्र में जंग-ए-आज़ादी का परचम लहरा रहा था ... जिसने गरीबी के बावजूद कलम थामकर बटुए की फटकार को सहा लेकिन समझौता नहीं किया ... जिसने नरेन्द्र मोदी को गोली मारने की हसरत रखी ... जिसने खुलेआम एक संपादक को मनोहर जोशी जैसे भ्रष्ट नेता से सम्मान न लेने की नसीहत दी ...
कई लोग आपसे असहमत रहे ... अहसमति जरूरी भी है ... असहमति आपको पसंद भी थी ... यहीं से विचारों की कतारें खुलती हैं...
यही कतारें लोकसत्ता के एक पत्रकार को रामप्रहर के दरवाजे तक ले आई ...
माफ करना ... आंखें आपके आदेश को मान नहीं रही हैं ... खामोश अदालत में भी फूट-फूट कर रो रही हैं ... इसी आस के साथ कि आप यकीनन लौट कर आएंगे ... एक नए नाम ... एक नए शरीर के साथ ... नए दौर के लेखक के रूप में ... अभी बहुत सारे काम करने हैं ... मुझे अभी आपसे मिलना भी है ...
लेकिन इस बार किताबों के जरिए नहीं ...
आप मेरे लिए इनमें आज भी जिंदा हैं ... मेरे लिए आपका हर जन्मदिन
गृहस्थ ( 1947)
श्रीमंत (1956)
खामोश अदालत जारी है (1967)
सखाराम बाइंडर (1972)
घासीराम कोतवाल (1972)
कन्यादान (1983)
सफर (1991)
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