Friday, November 6, 2009

कागद कारे ...

21वीं सदी में पत्रकारिता का भविष्य क्या सिर्फ आप जैसे बूढ़े और थके लोग ही ढोना चाहते हैं… बड़ी-बड़ी बहस… विश्वविद्यालय के पैसों पर बूढ़ों की फौज का जमावड़ा… मध्यप्रदेश की पुरानी विधानसभा में कागद कारे… और जनसत्ता के पहले पन्ने पर गेंदबाज को गोलंदाज लिखने वाले…

भाषाई अखाड़े के गंवई से मैं बावस्ता तो था… लेकिन जब पहली बार रूबरू हुआ… तो इस अज़ीम शख्सियत के सामने कुछ यूं पेश आया… हाथ में कई कागज़ उठाए… गुस्से में पैर पटकते हुए… मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की विज़न कमेटी की मीटिंग में बीचोंबीच खड़ा यूं ही कुछ चीखे जा रहा था… सदस्य चुप थे… प्रभाष जी भी… किसी ने कोई जवाब नहीं दिया… बस, बाहर निकलते वक्त उन्होंने बड़ी आत्मीयता से कंधे पर हाथ रखा और कहा, गुस्सा जायज़ है…

एक पल में हाथों की उस नर्मी और व्यवहार की गर्मी ने सब कुछ पिघला दिया… दिल में आया, फूट-फूटकर रोऊं… फिर पढ़ने का सिलसिला चलता रहा… प्रभाष जी… आसपास थे… पत्रकारिता का भविष्य भी जवान कंधों पर आ गया था… सब कुछ अपनी रफ्तार से जारी था… कभी-कभी कहीं इंटरनेट पर… किसी सफे पर… प्रभाष जी को जरूर पढ़ता था…

कल सचिन के आउट होने पर सारे लोग झल्ला रहे थे… लेकिन मैं गुस्से में था, झुंझला रहा था… मैंने कहा, अगर सचिन को ही पूरे रन बनाने हैं तो 11 क्यों, एक ही खिलाड़ी खेले… तब सोचा नहीं था… लेकिन अब सोच रहा हूं… प्रभाष जी भी शायद कुछ ऐसा ही सोच रहे हों… अगर आज उनका लेख पढ़ पाता तो दोस्तों को उसमें से ही कुछ दलीलें दे मारता… लेकिन सचिन की पारी से अब मैं भी झुंझलाऊंगा… गुस्सा आएगा… महान सचिन की यह बेहतरीन पारी नादानी-भरी लगती रहेगी… मैं जानता हूं, इसमें उनकी कोई गलती नहीं… लेकिन दिल को कौन समझाएगा...

प्रभाष जी… एक बार फिर उसी विधानसभा में लौट आइए... एक बार फिर जाने से पहले कंधे पर हाथ रखने के लिए… आपसे माफी भी तो मांगनी है… पत्रकारिता के भविष्य के साथ… हम सबको आपकी ज़रूरत है… एक बार कंधे पर फिर से हाथ रख दीजिए… यह जताने के लिए कि आप कहीं नहीं गए हैं… पारी अभी 73 रनों की ही हुई थी... हम सबको आपसे शतक की आस थी…