Sunday, December 2, 2007

मोदी के मार्क्सवादी




पूरे देश में फील गुड है ... हालांकि इस बार ये फील गुड भाजपा का नहीं है ... वामपंथियों और उनकी बैसाखी पर चलने वाले प्रधानमंत्री का है। सरकार नहीं गिरेगी ... परमाणु करार पर वामपंथी शीर्षासन मार चुके हैं ...सत्ता के लिए ऐसे राजनीतिक सियारपन ... लेकिन इनको शर्म नहीं आएगी ... खैर शर्म तो वामपंथियों को कभी आई भी नहीं है। गुडगांव में मजदूर पिटे तो संसद नहीं चलने दिया लेकिन नंदीग्राम में मजदूर किसानों की लाशें गिरा दी गई ... महिलाओं को बेआबरू किया गया ... सीआरपीएफ चीखती रही भई हमें उपदवग्रस्त इलाकों में भेजो ... लेकिन ये मोदी छाप मार्क्सवादी कान में तेल डालकर बैठे रहे ... आखिर काडर का जो सवाल था।
यदि बंगाल में सीपीएम की सरकार नहीं होती तो शायद कांग्रेस उसे कब का भंग कर चुकी होती ... लेकिन सत्ता की मजबूरी ... उसे वामपंथियों के मुंह में ठूंसने के लिए नंदीग्राम से अच्छा लॉलीपॉप मिल ही नहीं सकता था। यही वजह थी कि दस दिन के शीतकालीन सत्र में प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के लिअ रवाना हो गए ... कौन बैर मोल ले .... खैर इस स्थानीय मसले ने एक बार फिर साफ कर दिया कि भारत के मार्क्सवादियों का कोई चरित्र नहीं है ... वो भी महज ऐसी राजनीतिक जमात का हिस्सा हैं जो सत्ता के लिए मेरी कमीज तेरी कमीज से सफेद है का खेल खेलते हैं।
एक छात्र के रूप में मैंने भी मार्क्स और उनके संशोधित संस्करण स्टालिन और लेनिन को पढ़ा लेकिन उनके भारतीय भक्तों ने नंदीग्राम और सिंगूर संस्करण पेश किया है वो मार्क्सवाद से जरा सी भी सहानुभूति रखने वाले को परेशान कर रहा है। सर्वहारा को सर्वहारा का दुश्मन बताने वाला ये मार्क्सवादी मॉडल मार्क्स के दर्शन में कहीं नजर नहीं आता हां भारत में इसे सत्ता का नया मार्क्सवादी दर्शन जरूर कहा जा सकता है। हद है जिस अंग्रेजी मीडिया ने पांच सालों तक गुजरात को खोजी पत्रकारिता का आधार बनाए रखा वो भी नंदीग्राम के मसले पर चुप बैठा है। कहां है कैमरे की वो आंख जो किसी कैम्प में नहीं गई ... जिसे मां के सामने बेटी का बलात्कार दिखाई नहीं दिया ... किसानों की चीखें सुनाई नहीं दी ... और ये सब हुआ पुलिस के सामने ... मोदी छाप मार्क्सवादियों के राज में ... खैर ३० साल से गद्दी मिली है... तो बाप का राज तो होगा ही।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि नंदीग्राम में लाश किसकी गिरी ? भाजपाई की ? संघ के किसी नुमाइंदे की ? नहीं ... वो लोग गरीब मजदूर किसान थे,लेकिन सत्ता में शामिल नहीं ... ३० सालों से लाल सलाम ठोंक रहे थे इस इंतजार में कि कभी सर्वहारा राज आएगा ...
जिस जमीन बंटवारे का दंभ वामपंथी भरते थे उसे उन्होंने ही छिन लिया ... गोली के दम पर ... शर्म भी नहीं आई ... माफ करना भूल गया था कि शर्म शब्द आपके शब्दकोश में है ही नहीं ... होती तो तीस साल से अपने राज्य को गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी से निजात न दिला पाने का दर्द आपको रोने पर बिलखने पर मजबूर करता ... खैर आपसे क्या शिकायत करें कोलकाता में हाथ रिक्शा खींचने वाले मजदूरों का पसीना आप पोंछ नहीं पाए ... दिल्ली जाकर घड़ियाली आंसू बहाना आपकी नजर में क्रांति है ... तो हो ...
कई वामपंथियों से मुझे संवेदनशीलता की उम्मीद होती थी जब गोधरा को सस्वर गरियाते थे ... लेकिन नंदीग्राम पर उन्होंने ऐसा यू टर्न मारा है ... अनिलजी कि एक बात याद आती है कि वाकई संघी और वामपंथी बाल विवाह कराते हैं ... एक बार जो घुट्टी पिला दी उससे अच्छे बुरे का फर्क ही आदमी भूल जाता है। आज जब मेधा पाटेकर, महाश्वेता देवी सरीखे लोग वामपंथियों को गरिया रहे हैं तो वो ऐसी अजीम शख्सियतों को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं ... चर्चा करो तो बस उनकी आंखे भी सुर्ख लाल दिखाई देती हैं ... जवाब देते हैं कि पहले तृणमूल ने नक्सलवादियों के साथ मिलकर उनके कार्यकर्ताओं को जमीन से बेदखल किया ...
तो साहब आप पुलिस के पास जाते ...
शिकायत करते ... सरकार तो आपकी थी ...
महिलाओं के साथ बलात्कार ... मासूम बच्चों और निरीह किसानों के कत्ल का अधिकार आपको किसने दिया ...
वाकई मोदी का विरोध करते करते आप लोग
मोदी के मार्क्सवादी हो गए हैं।