Sunday, December 2, 2007

मोदी के मार्क्सवादी




पूरे देश में फील गुड है ... हालांकि इस बार ये फील गुड भाजपा का नहीं है ... वामपंथियों और उनकी बैसाखी पर चलने वाले प्रधानमंत्री का है। सरकार नहीं गिरेगी ... परमाणु करार पर वामपंथी शीर्षासन मार चुके हैं ...सत्ता के लिए ऐसे राजनीतिक सियारपन ... लेकिन इनको शर्म नहीं आएगी ... खैर शर्म तो वामपंथियों को कभी आई भी नहीं है। गुडगांव में मजदूर पिटे तो संसद नहीं चलने दिया लेकिन नंदीग्राम में मजदूर किसानों की लाशें गिरा दी गई ... महिलाओं को बेआबरू किया गया ... सीआरपीएफ चीखती रही भई हमें उपदवग्रस्त इलाकों में भेजो ... लेकिन ये मोदी छाप मार्क्सवादी कान में तेल डालकर बैठे रहे ... आखिर काडर का जो सवाल था।
यदि बंगाल में सीपीएम की सरकार नहीं होती तो शायद कांग्रेस उसे कब का भंग कर चुकी होती ... लेकिन सत्ता की मजबूरी ... उसे वामपंथियों के मुंह में ठूंसने के लिए नंदीग्राम से अच्छा लॉलीपॉप मिल ही नहीं सकता था। यही वजह थी कि दस दिन के शीतकालीन सत्र में प्रधानमंत्री विदेश यात्रा के लिअ रवाना हो गए ... कौन बैर मोल ले .... खैर इस स्थानीय मसले ने एक बार फिर साफ कर दिया कि भारत के मार्क्सवादियों का कोई चरित्र नहीं है ... वो भी महज ऐसी राजनीतिक जमात का हिस्सा हैं जो सत्ता के लिए मेरी कमीज तेरी कमीज से सफेद है का खेल खेलते हैं।
एक छात्र के रूप में मैंने भी मार्क्स और उनके संशोधित संस्करण स्टालिन और लेनिन को पढ़ा लेकिन उनके भारतीय भक्तों ने नंदीग्राम और सिंगूर संस्करण पेश किया है वो मार्क्सवाद से जरा सी भी सहानुभूति रखने वाले को परेशान कर रहा है। सर्वहारा को सर्वहारा का दुश्मन बताने वाला ये मार्क्सवादी मॉडल मार्क्स के दर्शन में कहीं नजर नहीं आता हां भारत में इसे सत्ता का नया मार्क्सवादी दर्शन जरूर कहा जा सकता है। हद है जिस अंग्रेजी मीडिया ने पांच सालों तक गुजरात को खोजी पत्रकारिता का आधार बनाए रखा वो भी नंदीग्राम के मसले पर चुप बैठा है। कहां है कैमरे की वो आंख जो किसी कैम्प में नहीं गई ... जिसे मां के सामने बेटी का बलात्कार दिखाई नहीं दिया ... किसानों की चीखें सुनाई नहीं दी ... और ये सब हुआ पुलिस के सामने ... मोदी छाप मार्क्सवादियों के राज में ... खैर ३० साल से गद्दी मिली है... तो बाप का राज तो होगा ही।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि नंदीग्राम में लाश किसकी गिरी ? भाजपाई की ? संघ के किसी नुमाइंदे की ? नहीं ... वो लोग गरीब मजदूर किसान थे,लेकिन सत्ता में शामिल नहीं ... ३० सालों से लाल सलाम ठोंक रहे थे इस इंतजार में कि कभी सर्वहारा राज आएगा ...
जिस जमीन बंटवारे का दंभ वामपंथी भरते थे उसे उन्होंने ही छिन लिया ... गोली के दम पर ... शर्म भी नहीं आई ... माफ करना भूल गया था कि शर्म शब्द आपके शब्दकोश में है ही नहीं ... होती तो तीस साल से अपने राज्य को गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी से निजात न दिला पाने का दर्द आपको रोने पर बिलखने पर मजबूर करता ... खैर आपसे क्या शिकायत करें कोलकाता में हाथ रिक्शा खींचने वाले मजदूरों का पसीना आप पोंछ नहीं पाए ... दिल्ली जाकर घड़ियाली आंसू बहाना आपकी नजर में क्रांति है ... तो हो ...
कई वामपंथियों से मुझे संवेदनशीलता की उम्मीद होती थी जब गोधरा को सस्वर गरियाते थे ... लेकिन नंदीग्राम पर उन्होंने ऐसा यू टर्न मारा है ... अनिलजी कि एक बात याद आती है कि वाकई संघी और वामपंथी बाल विवाह कराते हैं ... एक बार जो घुट्टी पिला दी उससे अच्छे बुरे का फर्क ही आदमी भूल जाता है। आज जब मेधा पाटेकर, महाश्वेता देवी सरीखे लोग वामपंथियों को गरिया रहे हैं तो वो ऐसी अजीम शख्सियतों को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं ... चर्चा करो तो बस उनकी आंखे भी सुर्ख लाल दिखाई देती हैं ... जवाब देते हैं कि पहले तृणमूल ने नक्सलवादियों के साथ मिलकर उनके कार्यकर्ताओं को जमीन से बेदखल किया ...
तो साहब आप पुलिस के पास जाते ...
शिकायत करते ... सरकार तो आपकी थी ...
महिलाओं के साथ बलात्कार ... मासूम बच्चों और निरीह किसानों के कत्ल का अधिकार आपको किसने दिया ...
वाकई मोदी का विरोध करते करते आप लोग
मोदी के मार्क्सवादी हो गए हैं।

Monday, November 5, 2007

उधार की पढ़ाई ...


डीएमके प्रमुख भी लगता है अंग्रेज इतिहासकारों की ही झूठन खाकर बड़े हुए हैं ... रामचरितमानस को उद्धृत कर सीता को राम की बहन बताना हास्यास्पद ही नहीं बल्कि मूर्खतापूर्ण है। मानस कई लोगों ने पढ़ी होगी क्या वो कोई भी ऐसी चौपाई या छंद बता सकते हैं?
सबसे पहले मैं ये साफ कर दूं कि मैं हिन्दू धर्म का पैरोकार नहीं हूं ... लेकिन ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें किसी राज्य के मुखिया को भला शोभा देती हैं?
कुछ दिनों पूर्व जेएनयू के छात्र संघ चुनावों में भी एक सज्जन ने भी भगवान राम के बारे में ऐसी ही टिप्पणी दी थी ... मेरा ऐसे लोगों से बस एक ही सवाल है कि क्या हम दस पंद्रह पीढ़ी पहले से अपने पूर्वजों के अस्तित्व का कोई भौतिक प्रमाण दे सकते हैं? समय के साथ साथ हर प्रमाण मिटता है और यहां तो घटना १७ लाख साल पुरानी है। राम के चरित्र जैसी घटनाएं भी वाचिक रूप में पीढ़ियों से चली आ रही हैं। राम सेतु जैसे कई प्रमाण सामने हैं जिनके माध्यम से उनकी प्रमाणिकता जुटाई जा सकती है ... लेकिन यहां तो लोग साक्ष्य नष्ट करके ही कहना चाहते हैं कि साक्ष्य उपलब्ध ही नहीं हैं।जिन इतिहासकारों की पढ़ाई पट्टी हम पढ़ रहे हैं उन तात्विक विद्वानों की जानकारी तो दो सहस्त्र वर्षों से ज्यादा नहीं है ... क्योंकि उससे पहले उनके लिए किसी विकसित सभ्यता का अस्तित्व था ही नहीं ... उन सभ्यताओं का भी नहीं जिन्हें खुद उन्होंने अपने हाथों से नष्ट किया है। बचपन से हमें पढ़ाया गया कि आर्य बाहर से आए थे हमने मान लिया .,.. प्रमाण कौन मांगता?
जिनके हाथों में पुरातत्व और इतिहास को बांचने का जिम्मा है वो आज भी विदेशी शिक्षा के ही आसरे हैं ... गाहे बगाहे लोग नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया का भी रोना रोते हैं ... लेकिन ये तो सोचना ही पड़ेगा कि हम नेहरू की किताब को प्रमाणिक मानें या फिर वाल्मीकि की रामायण और अपने वेद उपनिषदों को ...

Wednesday, October 31, 2007

अंतिम इच्छा ...


मैं जिंदगी भर इतना जला इतना जला
कि
मरने के बाद जलाने की जरूरत नहीं
मैं आंसुओं में इतना डूबा इतना डूबा
कि
अवशेष को गंगा में बहाने की जरूरत नहीं
जिंदगी भर मेरी इज्जत दो गज कपड़े के पीछे भागती रही
हो सके तो मेरी लाश पर एक कफन डाल आना

Thursday, October 11, 2007

कुछ खुद पर ...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

कल इस्तीफा दिया, प्रत्याशित था कि बॉस से घुड़की पड़ेगी ... सो फोन आने के बाद कान तैयार थे ... लेकिन अगले दो तीन मिनट तक कानों में जो शहद घुलता रहा उससे चौथे खंभे के संरक्षक समाजवादियों का साम्राज्यवाद खुलकर सामने आ गया पेश है कुछ झलकियां ...

तुम्हें मैं प्रिंट से उठा कर लाया ... तुम्हारे लिए कितने लोगों ने मुझे फोन किया ... आइंदा से कभी मुझे फोन मत करना ...

और भी कुछ कुछ !!!!!

ऐसा लगा कि गोया, प्रिंट वो भी पीटीआई जैसी संस्था में काम करना कोई ऐसा पेशा हो जिससे दो बाइट में खुद को समेटे लोग दोयम दर्जे का मानते हैं, ऐसी कई बातें दिमाग में भरे जा रही थीं ... सोचने पर मजबूर हो रहा था कि क्या मैं सिफारशी लाल हूं ... इस संस्था में आने से पहले मुझे एक प्रश्न पत्र दिया गया था जिसके सारे सवाल मैंने हल किए ... कॉपी लिखने में अपनी तरफ से कोई गलती नहीं की ... ढाई साल के सफर मैं कई दिन और रात बगैर छुट्टी की परवाह किए समर्पित किए ...

फिर ऐसी बातें ???? ...

मजे कि बात ये है कि जो सूरमा मेरे इस्तीफा देने से हत्थे से उखड़ रहे थे उन्होंने खुद भी कई घाट का पानी पिया हुआ है, फिर क्या उन्होंने ये काम भविष्य में आगे बढ़ने के लिए नहीं किया ???

भई, हम किसी सरकारी नौकरी में तो हैं नहीं जो वैकेन्सी निकले हम फॉर्म भरें और कोई स्वस्थ प्रतियोगिता के जरिए नौकरी मिल जाए ... इन साहब ने भी किसी से बात की होगी किसी अंदरवाले!! को खाली जगह के बारे में पता लगाने को कहा होगा ... फिर एप्लाई किया होगा ...

फिर मेरे ऐसा करने पर मैं उनके रहमोकरम पर पला बढ़ा ... कैसे ???? ये सवाल मुझे कचोटता जा रहा था ... जिस संस्था से वो मुझे उठा कर लाने की बात कर रहे थे उसमें तकरीबन देश के हर कोने से हजारों परीक्षार्थी बैठते हैं, तीन घंटे की परीक्षा होती है फिर महीनों के इंतजार के बाद रिजल्ट आता है ... फिर तीन संपादकों के पैनल के सामने आपका इंटरव्यू होता है ... और यकीन मानिए इसका स्तर ऐसा होता है जिसमें इन महानुभाव के कई शेर घास खाने को मजबूर हो जाएंगे।

बहरहाल कहते हैं कि तरक्की आदमी के सिर चढ़ कर बोलती है ... लेकिन यहां तो तरक्की आदमी के एक नहीं दस सिरों पर चढ़ बैठी है ... उसे दशानन बनने पर मजबूर कर रही है ... लेकिन शायद हमारे आका !!!! एक बात भूल जाते हैं कि घमंड दशानन का तक नहीं टिका फिर हम और आप क्या चीज हैं। इन्हें शायद इस बात का भी इल्म नहीं रहता कि हम इनके नीचे नहीं बल्कि इनके साथ काम करते हैं ... लेकिन क्या करें पापी पेट कभी विरोध नहीं करता ... कभी नहीं कह पाता कि संविधान ने हमें भी 19 (1) a दिया है ... हम भी बराबर के हैं ... या यूं कहें कि हां हम कमजोर हैं ... जवाब मुंह पर नहीं दे पाया तो कलम की आड़ में खुद को छिपा लिया।

कुल मिलाकर ऐसे घमंडी लोगों के लिए कॉलेज के दिनों का एक जुमला याद आता है कि

तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी ....

Tuesday, October 2, 2007

इंसान या महात्मा?


गांधी जयंती ... दो फूल ... चंद गाने ... हो गई इतिश्री।

कई लोग गांधी पर बहस मुबाहिसे की मांग करते हैं लेकिन गांधी को महात्मा मानने वाले इसे दरकिनार कर देते हैं और यहीं से मिलता है गांधी विरोधियों को संबल। दरअसल सारी दिक्कत यहीं से शुरू होती है संस्कार ऐसे मिले हैं कि महात्माओं पर मीन-मेख आप निकाल नहीं सकते, लेकिन अगर गांधी को आप इंसान के रूप में सोचेंगे तो वाकई आपको उनकी शख्सियत बहुत बड़ी जान पड़ेगी।

कई लोगों को लगता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हरिपुर इंडियन नेशनल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बावजूद गांधी का उनके प्रति विरोध गलत था, लेकिन क्या कोई इंसान किसी के विचारों को सही नहीं मानता या फिर उसे वो पसंद नहीं है तो उसका कद कम हो जाएगा?

कई समझदार भगत सिंह की मौत के लिए भी गांधी को जिम्मेदार मानते हैं ... मेरा उनसे एक ही सवाल है कि क्या एक व्यक्ति के लिए पूरे स्वतंत्रता संग्राम को ताक पर रखा जा सकता था ? यकीनन भगत सिंह बहुत बड़े क्रांतिकारी थे और अगर उन्हें जान ही बचानी होती तो वो बम फेंककर भाग सकते थे ... लेकिन उनका मकसद एक ही था धमाका !!!! फिर गांधी के जरिए भीख में मिला जीवन क्या उन्हें स्वीकार होता ?

देश भर को दिखाने के लिए हममें से कितने लोग आधे पैर तक धोती बांध कर घूम सकते हैं ... कौन देश, उसूलों और न्याय की खातिर अपने बेटे तक का पक्ष लेने से चूक सकता है .... कौन आजादी के जश्न में भी बंगाल के सुदूर गांव में जाकर हिंसा की आग बुझा सकता है ... कौन गांधी की आत्मकथा जैसी सच्चाई को लिखने का साहस कर सकता है ...

अगर आप में से कोई तो मेरे लिए आप भी महात्मा हैं ...

और अगर नहीं तो कृप्या गांधी को कोसने से पहले अपने गिरेबान में झांक लें तो आप ये जरूर मानेंगे कि गांधी महात्मा न सही एक बहुत बड़ी शख्सियत तो जरूर थे।

Thursday, September 13, 2007

तानाशाहों का फैसला
















18 मई को मिड डे के अंक में प्रकाशित लेख में कहा गया था कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल के बेटे को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के सीलिंग अभियान से लाभ पहुंचा है। इस मामले में हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए अखबार के संपादक और अन्य को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। अदालत ने 20 अगस्त को समाचार पत्र अवमानना मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था। अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि जस्टिस सब्बरवाल के बेटे ने मॉल डेवलपर्स के साथ गठजोड़ किया था। मॉल डेवलपर्स को जस्टिस सब्बरवाल के कार्यकाल के दौरान सीलिंग मुहिम से फायदा हुआ था। उसके बाद 19 मई का अंक भी कोर्ट में पेश किया गया। उस अंक में कार्टूनिस्ट इरफान खान ने जस्टिस सब्बरवाल पर एक कार्टून बनाया था। बाद में हाईकोर्ट ने कार्टूनिस्ट को भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा था।
और अब हाईकोर्ट ने 'मिड-डे' अखबार के संपादक, प्रकाशक, स्थानीय संपादक और कार्टूनिस्ट को अदालत की अवमानना का दोषी करार दिया है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि इस लेख ने न्यायपालिका की छवि को ठेस पहुंचाई है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक 'लक्ष्मण रेखा' निर्धारित कर रखी थी, अखबार ने इस रेखा को पार कर दिया। दोषी करार दिए पत्रकारों की सजा के बारे में कोर्ट 21 सितंबर को फैसला सुनाएगा।
मैं कतई ये नहीं कहना चाहता कि अखबार या संचार माध्यम अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें ... लेकिन देश की अदालतों का जो तानाशाही रवैया है उसपर लगाम कौन लगाएगा ... बंबई हाईकोर्ट के वरिष्ठ जज कुछ दिनों पहले ये कहते हुए सुने गए कि पांच करोड़ की रकम लेकर भी वो अपनी बेटी के लिए घर नहीं खरीद पाए, क्योंकि बिल्डर उनसे ब्लैक में पैसे मांग रहा था ... क्या उन्हें ये बात नहीं पता थी कि ये मामला वो खुद कोर्ट में उठा सकते थे ... ज्यूडिशियल एक्टिविज्म अपने घर से क्यों नहीं शुरू कर सकते ... ये और बात है कि नागपुर में 102 करोड़ में बिकी इनकी जमीन भी सवालों के घेरे में है लेकिन इस मामला पर सरकार और जनता यहां तक की मीडिया भी चुप है ... आखिर अदालत से पंगा कौन ले। लगता है आज भी जज खुद को पंच परमेश्वर समझते हैं ... लानत है ऐसी व्यवस्था ऐसी अदालत पर कि उनके खिलाफ जबान खोलना हिमाकत बन जाए ... कौन नहीं जानता कि न्यायपालिका में भी जड़ तक भ्रष्टाचार भरा हुआ है ... कोई जज बिना देखे देश के राष्ट्रपति के नाम वारंट जारी कर देता है तो ये कह कर उसका बचाव किया जाता है कि भई उसके पास इतना काम है कि वो रोजाना हर कागज देख नहीं सकता ... फिर तो साहब ये तर्क हर भ्रष्ट्र पुलिसवाले हर भ्रष्ट्र नेता पर हर भ्रष्ट कर्मचारी पर लागू होता है, क्योंकि आजकल फुर्सत किसके पास है? ऐसे में अदालतों की लक्ष्मण रेखा इतनी सख्त क्यों ... कोई जज गीता को राष्ट्र ग्रंथ बता दे तो भी आप संभल कर बोलिए ...
मामला अदालत की अवमानना का हो जाएगा ...
कोई जज कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो अदालत के चौहद्दे में उसे माईलॉर्ड ही कहिए ...
जब इनको ज्यूडिशियल काउंसिल में बांधने की बात चले तो अदालत के कामों में हस्तक्षेप की बात कर ये पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं ...
कुल मिलाकर लोकतंत्र के अंदर ये एक ऐसी तानाशाही है जिसके विरोध का अधिकार न सरकार के पास है और न ही जनता के ... आखिर क्यों कोई जज या न्यायपालिका से जुड़ा व्यक्ति भ्रष्ट हो तो उसके खिलाफ खबर नहीं छप सकती ... जहां तक कार्टूनिस्ट का सवाल है तो उसकी कूची को रोकना अभिव्यक्ति की हत्या जैसा है ... आखिर क्यों काले कोर्ट वालों से कोई ये नहीं पूछ सकता कि 3 लाख लोगों को इंसाफ कब मिलेगा (जिनके मामले उनके पास लंबित हैं) ... सरकार और व्य़वस्था को तो ये हर वक्त कठघरे में खड़ा करते हैं और जब खुद की बात आती है तो संसाधनों की कमी का रोना रोते हैं ....
इसलिए मैं पुरजोर तरीके से इस तानाशाही की मुखालफत करता हूं .... कोई मानता है तो माने इसे अदालत की अवमानना !!!!
आजाद देश में आखिर इस चौहद्दी से भी आवाज तो आए

Tuesday, September 11, 2007

सरकार के खिलाफ

विसर्जन की ऐसी तस्वीरों के खिलाफ सरकार ने पाबंदी लगा रखी है ... पर मैं इन तस्वीरों को छापकर इस बंदिश के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराता हूं ... हिम्मत है तो पहले ऐसे विसर्जन के खिलाफ पाबंदी लगाइये....

भेड़ चाल ...


मुए मुशर्रफ को लेकर कल लगभग पागलपन का रवैया देखकर एक बार फिर चैनल चरित्र की भेड़ प्रवृत्ति सामने आ गई। अमूमन पाकिस्तान से दो दो हाथ या क्रिकेट मैच को लेकर या फिर कभी वहां हिंसा के दृश्यों को लेकर ही न्यूज चैनलों के कैमरे उन्मादित होते हैं, लेकिन कल जिस तरह शरीफ की शराफत की जय जयकार और मुशर्रफ की मलानत हो रही थी ( मिशन के रूप में ) उसे देखकर ऐसा लगा कि कम से कम हिन्दी मीडिया ने अंतरराष्ट्रीय खबरों को तवज्जो न देने की तोहमत से तो गंगा स्नान करने की ठान ली है। भई वाह ! क्या संपाकदकीय दृष्टि थी ... जिस बात को विदेश मंत्रालय तक पाकिस्तान का अंदरूनी मामला मानकर टालता रहा वहां हम खबर नहीं मिशन की तरह पिल पड़े, हां एक सवाल नजरअंदाज करना था ... या यूं कहें कि जवाब नहीं था ... कि क्या नवाज के गद्दी पर नवाजने से दोनों देशों में एका बढ़ जाएगी ... क्या कश्मीर समस्या का रातों रात समाधान निकल आएगा ? जाहिरा तौर पर इस सवाल का जवाब किसी का पास नहीं था। दरअसल मामला पाकिस्तान प्रेम का नहीं था, मामला था कुछ मनोहारी विजुएल्स का जिससे दर्शक खिंचते चले आएं ... लेकिन कमबख्तों ने देश लौटने के लिए फ्लाइट ही करीब करीब दोपहर की पकड़ी, सारा मजा किरकिरा हो गया, फिर भी चंद घंटों के इस पाकिस्तान प्रेम ने एक सवाल का जवाब एक बार फिर दे दिया है कि वाकई हम सब भेड़ हैं ... भीड़ से भटके नहीं ... और खो जाने के डर से ग्रसित

ऐसे में पत्रकारिता छोड़कर पान दुकान चलाना ज्यादा मुफीद रहेगा।

Friday, September 7, 2007

डरपोकों का चिठ्ठा


चिठ्ठा जगत में जुड़ने से पहले लगा कि यहां शायद कुछ क्रांतिकारी मित्र मिल जाएं ... जिन्हें दुनियां के सामने आने में किसी भी कारण से डर लग सकता है लेकिन यहां ब्रेफ्रिकी होगी ... लेकिन मैं गलत था डरपोकों की एक पूरी जमात यहां भी मौजूद है ... छद्म नाम ... छद्म काम ... अरे साहब थोथली बातें सिर्फ दिल को खुश रखने के काम आती हैं ... कम से कम यहां तो खुल कर बोलिए उनके खिलाफ जिनके सामने जाने से भी आप डरते हैं।

Monday, September 3, 2007

हिन्दी ...







छोटा था ... टाट पट्टी वाले स्कूल में तो नहीं लेकिन किसी कॉन्वेंन्ट में भी पढ़ाई नहीं की ... नतीजतन अंग्रेजी में थोड़ी मात खाता रहा। भाई -बहन ने वक्त की नजाकत को समझते हुए लाल किताब ( रेन एंड मार्टिन ) का दामन थामा और मैं भटक गया हंस में ... क्रांति और अपनी भाषा का भ्रमजाल ... उलझा रहा ... बाद में देखा तो पाया कि हिन्दी का दरबार सजाने वाले राजेन्द्र यादव, नामवर जी सरीखे लोगों ने भी हिन्दी को ड्राइंग रूम तक सीमित रखा उनके बेड रूम में अंग्रेजी ही मौजूद थी ... किसी के बच्चे हिन्दीधारी नहीं बने ( धारी शब्द खुद की उपज है) ... खैर मेरा ये प्रयास कतई नहीं है कि हमारी हिन्दी पिछड़ी है ... लेकिन ये आपको मानना है कि आज अंग्रेजी प्रगति का द्योतक बन चुकी है ... आप अंग्रेजी में बांग न दें, लेकिन जरूरत पड़ने पर अगर आपने ये ट्रेन छोड़ी तो पैसों की रेल आपसे जरूर छूट जाएगी ... यकीन न हो तो हिन्दी चैनलों का माहौल देख लीजिए भले ही आपकी हिन्दी बहुत अच्छी हो, लेकिन तरक्की उसको मिलेगी जो बॉस के साथ अंग्रेजी में चोंच मिला सके। जिसके हाथ हिन्दी के की बोर्ड पर भले न चलें लेकिन जबान गज भर बाहर रहे ... जो काम न करे लेकिन बात बात पर ओ शिट ओ माई गॉड के मंत्रों का जाप करता रहे ... जो मेल लिखने के लिए रोमन का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दी की लिपि को मारने में अपना पूरा योगदान करते हैं ... और हमारे हिन्दी के पुरोधा सब जानने के बावजूद हमें तो भाषण देते हैं लेकिन अपना घर कभी ठीक नहीं करते ... चाहते हैं भगत सिंह पैदा हो लेकिन पड़ोसी के घर में ... जानता हूं मैं भी भ्रमित हूं ... शायद कुंठित भी
इसलिए आप दिखावे पर मत जाईये और अपनी अक्ल लगाईये !!!!

क्या यही है जनतंत्र ?

कुछ दिनों पहले इंडियन एक्सप्रेस में एक बच्चे की मौत की खबर पढ़ी !!! खबर नई नहीं थी ... कहने वाले जरूर कहेंगे "गीता का सार" ... खैर घटना हिमाचल की थी ... बच्चे के मां बाप मंडी से अपने बीमार बच्चे का ईलाज करवाने शिमला आए थे ... लेकिन सचिवालय के पास फंस गए कांग्रेस भाजपा की कुश्ती में ... बिचारे गिड़गिड़ाते रहे ... मांगते रहे अपने बच्चे को अस्पताल पहुंचाने की भीख लेकिन "जनप्रतिधियों " का दिल नहीं पसीजा ... मुख्यमंत्री एक विधायक की खिड़की से खड़े होकर अपने पहलवानों का उत्साहवर्धन कर रहे थे ... इसमें बेचारे गरीब की इल्तिजा कौन सुनता ... सही भी है ... जन तंत्र में तंत्र आप तो चलाते नहीं हैं ... बहरहाल दौड़कर जब वो अपने बच्चे को गोद में ही अस्पताल ले गए तब तक उसकी मौत हो चुकी थी ... मैंने सोचा शायद मेरा चैनल इस खबर को तो उठा ही लेगा ... लेकिन सलमान भगवान के आगे "एक बच्चे की मौत"
कौन पूछे!!!

Friday, August 31, 2007

भगवान घर आए


आखिर भक्तों की मुराद पूरी हो गई ... भगवान संजय के बाद भगवान सलमान भी घर पहुंचने वाले हैं ... और अपनी संजय दृष्टि के साथ हमारी पूरी जमात ये दृश्य भक्त जनों तक पहुंचाने में जुटी है ... हो भी क्यों आखिर देवता पशुदलन करने के बाद जेल से जो छूटे हैं ... अभी मैं महसूस कर सकता हूं न्यूज चैनलों का उन्माद (क्योंकि मैं ब्यूरो में सिमटा हुआ हूं) ... हर बात पर विश्लेषण हो रहा होगा सलमान भगवान ने क्या कपड़े पहने हैं ... उनकी भाव भंगिमाएं कैसी हैं
सच पूछिए शर्म आती है ...
इस बात को चीख कर कह सकता हूं कि कम से कम मैं ऐसे लोगों को संपादक मानने से इंकार करता हूं जिनकी नजरों में ये खबरें खबरों से ज्यादा मिशन बन जाती हैं ... इनको मैं खबर भी इसलिए मान लेता हूं कि ये कथित तौर पर पब्लिक फिगर हैं ... लेकिन प्रधानमंत्री एटमी करार पर क्या बोल सकते हैं ... विदर्भ के लिए क्या पैकेज है ... तेल लेने जाए साहब ये तो कल अखबारों में भी हम पढ़ सकते हैं ... इसके लिए दिमाग खर्च करने की क्या जरूरत है ... ये और बात है कि हमारे आकाओं को शायद ही पता हो कि हाइड एक्ट क्या है ... आखिर करार पर तकरार क्यूं है ... तो दिखाओ हम क्या दिखाना चाहते हैं ... और उस पर चिपका दो लेबल कि लोग क्या देखना चाहते हैं ....
खैर नक्करखाने की तूती की तरह हमारे साथ आवाज बुलंद करने वाले चंद ही हैं ... फिर भी आस है कि ये आवाज कभी न कभी चीख बनेगी