Wednesday, October 31, 2007

अंतिम इच्छा ...


मैं जिंदगी भर इतना जला इतना जला
कि
मरने के बाद जलाने की जरूरत नहीं
मैं आंसुओं में इतना डूबा इतना डूबा
कि
अवशेष को गंगा में बहाने की जरूरत नहीं
जिंदगी भर मेरी इज्जत दो गज कपड़े के पीछे भागती रही
हो सके तो मेरी लाश पर एक कफन डाल आना

Thursday, October 11, 2007

कुछ खुद पर ...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

कल इस्तीफा दिया, प्रत्याशित था कि बॉस से घुड़की पड़ेगी ... सो फोन आने के बाद कान तैयार थे ... लेकिन अगले दो तीन मिनट तक कानों में जो शहद घुलता रहा उससे चौथे खंभे के संरक्षक समाजवादियों का साम्राज्यवाद खुलकर सामने आ गया पेश है कुछ झलकियां ...

तुम्हें मैं प्रिंट से उठा कर लाया ... तुम्हारे लिए कितने लोगों ने मुझे फोन किया ... आइंदा से कभी मुझे फोन मत करना ...

और भी कुछ कुछ !!!!!

ऐसा लगा कि गोया, प्रिंट वो भी पीटीआई जैसी संस्था में काम करना कोई ऐसा पेशा हो जिससे दो बाइट में खुद को समेटे लोग दोयम दर्जे का मानते हैं, ऐसी कई बातें दिमाग में भरे जा रही थीं ... सोचने पर मजबूर हो रहा था कि क्या मैं सिफारशी लाल हूं ... इस संस्था में आने से पहले मुझे एक प्रश्न पत्र दिया गया था जिसके सारे सवाल मैंने हल किए ... कॉपी लिखने में अपनी तरफ से कोई गलती नहीं की ... ढाई साल के सफर मैं कई दिन और रात बगैर छुट्टी की परवाह किए समर्पित किए ...

फिर ऐसी बातें ???? ...

मजे कि बात ये है कि जो सूरमा मेरे इस्तीफा देने से हत्थे से उखड़ रहे थे उन्होंने खुद भी कई घाट का पानी पिया हुआ है, फिर क्या उन्होंने ये काम भविष्य में आगे बढ़ने के लिए नहीं किया ???

भई, हम किसी सरकारी नौकरी में तो हैं नहीं जो वैकेन्सी निकले हम फॉर्म भरें और कोई स्वस्थ प्रतियोगिता के जरिए नौकरी मिल जाए ... इन साहब ने भी किसी से बात की होगी किसी अंदरवाले!! को खाली जगह के बारे में पता लगाने को कहा होगा ... फिर एप्लाई किया होगा ...

फिर मेरे ऐसा करने पर मैं उनके रहमोकरम पर पला बढ़ा ... कैसे ???? ये सवाल मुझे कचोटता जा रहा था ... जिस संस्था से वो मुझे उठा कर लाने की बात कर रहे थे उसमें तकरीबन देश के हर कोने से हजारों परीक्षार्थी बैठते हैं, तीन घंटे की परीक्षा होती है फिर महीनों के इंतजार के बाद रिजल्ट आता है ... फिर तीन संपादकों के पैनल के सामने आपका इंटरव्यू होता है ... और यकीन मानिए इसका स्तर ऐसा होता है जिसमें इन महानुभाव के कई शेर घास खाने को मजबूर हो जाएंगे।

बहरहाल कहते हैं कि तरक्की आदमी के सिर चढ़ कर बोलती है ... लेकिन यहां तो तरक्की आदमी के एक नहीं दस सिरों पर चढ़ बैठी है ... उसे दशानन बनने पर मजबूर कर रही है ... लेकिन शायद हमारे आका !!!! एक बात भूल जाते हैं कि घमंड दशानन का तक नहीं टिका फिर हम और आप क्या चीज हैं। इन्हें शायद इस बात का भी इल्म नहीं रहता कि हम इनके नीचे नहीं बल्कि इनके साथ काम करते हैं ... लेकिन क्या करें पापी पेट कभी विरोध नहीं करता ... कभी नहीं कह पाता कि संविधान ने हमें भी 19 (1) a दिया है ... हम भी बराबर के हैं ... या यूं कहें कि हां हम कमजोर हैं ... जवाब मुंह पर नहीं दे पाया तो कलम की आड़ में खुद को छिपा लिया।

कुल मिलाकर ऐसे घमंडी लोगों के लिए कॉलेज के दिनों का एक जुमला याद आता है कि

तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी ....

Tuesday, October 2, 2007

इंसान या महात्मा?


गांधी जयंती ... दो फूल ... चंद गाने ... हो गई इतिश्री।

कई लोग गांधी पर बहस मुबाहिसे की मांग करते हैं लेकिन गांधी को महात्मा मानने वाले इसे दरकिनार कर देते हैं और यहीं से मिलता है गांधी विरोधियों को संबल। दरअसल सारी दिक्कत यहीं से शुरू होती है संस्कार ऐसे मिले हैं कि महात्माओं पर मीन-मेख आप निकाल नहीं सकते, लेकिन अगर गांधी को आप इंसान के रूप में सोचेंगे तो वाकई आपको उनकी शख्सियत बहुत बड़ी जान पड़ेगी।

कई लोगों को लगता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हरिपुर इंडियन नेशनल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बावजूद गांधी का उनके प्रति विरोध गलत था, लेकिन क्या कोई इंसान किसी के विचारों को सही नहीं मानता या फिर उसे वो पसंद नहीं है तो उसका कद कम हो जाएगा?

कई समझदार भगत सिंह की मौत के लिए भी गांधी को जिम्मेदार मानते हैं ... मेरा उनसे एक ही सवाल है कि क्या एक व्यक्ति के लिए पूरे स्वतंत्रता संग्राम को ताक पर रखा जा सकता था ? यकीनन भगत सिंह बहुत बड़े क्रांतिकारी थे और अगर उन्हें जान ही बचानी होती तो वो बम फेंककर भाग सकते थे ... लेकिन उनका मकसद एक ही था धमाका !!!! फिर गांधी के जरिए भीख में मिला जीवन क्या उन्हें स्वीकार होता ?

देश भर को दिखाने के लिए हममें से कितने लोग आधे पैर तक धोती बांध कर घूम सकते हैं ... कौन देश, उसूलों और न्याय की खातिर अपने बेटे तक का पक्ष लेने से चूक सकता है .... कौन आजादी के जश्न में भी बंगाल के सुदूर गांव में जाकर हिंसा की आग बुझा सकता है ... कौन गांधी की आत्मकथा जैसी सच्चाई को लिखने का साहस कर सकता है ...

अगर आप में से कोई तो मेरे लिए आप भी महात्मा हैं ...

और अगर नहीं तो कृप्या गांधी को कोसने से पहले अपने गिरेबान में झांक लें तो आप ये जरूर मानेंगे कि गांधी महात्मा न सही एक बहुत बड़ी शख्सियत तो जरूर थे।