Thursday, October 11, 2007

कुछ खुद पर ...


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

कल इस्तीफा दिया, प्रत्याशित था कि बॉस से घुड़की पड़ेगी ... सो फोन आने के बाद कान तैयार थे ... लेकिन अगले दो तीन मिनट तक कानों में जो शहद घुलता रहा उससे चौथे खंभे के संरक्षक समाजवादियों का साम्राज्यवाद खुलकर सामने आ गया पेश है कुछ झलकियां ...

तुम्हें मैं प्रिंट से उठा कर लाया ... तुम्हारे लिए कितने लोगों ने मुझे फोन किया ... आइंदा से कभी मुझे फोन मत करना ...

और भी कुछ कुछ !!!!!

ऐसा लगा कि गोया, प्रिंट वो भी पीटीआई जैसी संस्था में काम करना कोई ऐसा पेशा हो जिससे दो बाइट में खुद को समेटे लोग दोयम दर्जे का मानते हैं, ऐसी कई बातें दिमाग में भरे जा रही थीं ... सोचने पर मजबूर हो रहा था कि क्या मैं सिफारशी लाल हूं ... इस संस्था में आने से पहले मुझे एक प्रश्न पत्र दिया गया था जिसके सारे सवाल मैंने हल किए ... कॉपी लिखने में अपनी तरफ से कोई गलती नहीं की ... ढाई साल के सफर मैं कई दिन और रात बगैर छुट्टी की परवाह किए समर्पित किए ...

फिर ऐसी बातें ???? ...

मजे कि बात ये है कि जो सूरमा मेरे इस्तीफा देने से हत्थे से उखड़ रहे थे उन्होंने खुद भी कई घाट का पानी पिया हुआ है, फिर क्या उन्होंने ये काम भविष्य में आगे बढ़ने के लिए नहीं किया ???

भई, हम किसी सरकारी नौकरी में तो हैं नहीं जो वैकेन्सी निकले हम फॉर्म भरें और कोई स्वस्थ प्रतियोगिता के जरिए नौकरी मिल जाए ... इन साहब ने भी किसी से बात की होगी किसी अंदरवाले!! को खाली जगह के बारे में पता लगाने को कहा होगा ... फिर एप्लाई किया होगा ...

फिर मेरे ऐसा करने पर मैं उनके रहमोकरम पर पला बढ़ा ... कैसे ???? ये सवाल मुझे कचोटता जा रहा था ... जिस संस्था से वो मुझे उठा कर लाने की बात कर रहे थे उसमें तकरीबन देश के हर कोने से हजारों परीक्षार्थी बैठते हैं, तीन घंटे की परीक्षा होती है फिर महीनों के इंतजार के बाद रिजल्ट आता है ... फिर तीन संपादकों के पैनल के सामने आपका इंटरव्यू होता है ... और यकीन मानिए इसका स्तर ऐसा होता है जिसमें इन महानुभाव के कई शेर घास खाने को मजबूर हो जाएंगे।

बहरहाल कहते हैं कि तरक्की आदमी के सिर चढ़ कर बोलती है ... लेकिन यहां तो तरक्की आदमी के एक नहीं दस सिरों पर चढ़ बैठी है ... उसे दशानन बनने पर मजबूर कर रही है ... लेकिन शायद हमारे आका !!!! एक बात भूल जाते हैं कि घमंड दशानन का तक नहीं टिका फिर हम और आप क्या चीज हैं। इन्हें शायद इस बात का भी इल्म नहीं रहता कि हम इनके नीचे नहीं बल्कि इनके साथ काम करते हैं ... लेकिन क्या करें पापी पेट कभी विरोध नहीं करता ... कभी नहीं कह पाता कि संविधान ने हमें भी 19 (1) a दिया है ... हम भी बराबर के हैं ... या यूं कहें कि हां हम कमजोर हैं ... जवाब मुंह पर नहीं दे पाया तो कलम की आड़ में खुद को छिपा लिया।

कुल मिलाकर ऐसे घमंडी लोगों के लिए कॉलेज के दिनों का एक जुमला याद आता है कि

तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी ....

9 comments:

अनिल रघुराज said...

इसीलिए तो कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र अधूरा है। जर्मनी में काम करने के दौरान मैंने पाया कि वहां हर बॉस अपने नीचे काम करनेवाले को collegue कहता था। अपने खाली संसदीय-चुनावी लोकतंत्र है, सामाजिक संस्थाओं और जीवन में लोकतंत्र गायब है।

बोधिसत्व said...

उनके बारे में कुछ और खुलासा कर दिया होता.....

Unknown said...

एक ब्लाग पर कमेन्ट्स में अचानक तुम्हारा नाम नज़र आया..परिचित नाम देख मैंने प्रोफाईल देखा औऱ फिर तुम्हारे ब्लाग पर पहुंच गयी..अच्छा लगा अपने सहकर्मी से यूं मिलना..

Iam the Change said...

In life, we tend to encounter all sorts of people...some let their work do the talking and others who have no "work" to speak of. It's ironical that those who have no work to speak of..rather than trying to "work" keep trying to take the easy way out of speaking about the things they believe are achievements and hide ther mediocrity. These are the people who get a thrill out of telling people "how many people work UNDER them", "how many people they have given or can give jobs to" and cannot digest the fact that one of their "juniors" has the ability to rise in an environment outside the scope of their "raj". It's unfortunate that all of us have to deal with such creatures. Not to worry...you're on the ascent, they're on the descent...soon they'll just be relics (if they aren't already) The woods are lovely, dark and deep. But i have promises to keep....And miles to go before i sleep

Unknown said...

सच का सामना करने की हिम्मत जिनमें नहीं है वही बड़े पदों पर पहुंच रहे हैं...सच्चाई से मुंह मोड़ खुद को आसमान में रख ये डपोरशंखी ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि दुनिया अगर चल रही है तो बस इसलिए कि वो बॉस बने बैठे हैं...मगर वो दिन दूर नहीं जब पर्दे के पीछे से खेल खेलने वाले ये कथित विद्वान लोग अपने कुकर्मों के बोझ तले खुद को दबे हुए पाएंगे

Unknown said...

अंधे को अंधा लिखना बेकार है। काम का है अंधे की बात पर परवाह खर्च किए बगैर आगे बढ़ जाना, वही आपने किया भी। लोकतंत्ररक्षक और कई तरह की आज़ादी के नाम पर चल रही संस्थाओं के अंदर मौजूद तमाम अंतर्विरोधों के बीच हमें आवाज बुलंद रखनी है, अपना वजूद खोने नहीं देना है, रोज सोते वक्त याद करना है कि मेरी जीभ बोलना जानती भी है और चाहती भी...करीब दो साल के करियर का सार सिर्फ इतना ही है।
बोल कि लब आजाद हैं तेरे...
बोल की जुबां अब तक तेरी है,
बोल ये सुतवां जिस्म है तेरा,
बोल ये जां अब तक तेरी है...
बोल ये थोड़ा वक्त बहुत है,
जिस्म-ओ-जुबां की मौत से पहले,
बोल जो कहना है कह ले
बोल...बोल..बोल...
काफी कुछ सीखा है आपसे, आज विदाई चिट्ठी पढ़ी, जो आपकी स्क्रिप्ट की तरह ही सबसे अलग थी। कहानी बयां करने के साथ साथ उसके अंदर मौजूद सच्चाई कहीं ना कहीं कचोटती भी थी। अभी कई सारे सवालों के जवाब ढूंढ़ने हैं। लेकिन इन सबके बीच इतना जरूर जानता हूं कि जो चल रहा है अधिक दिनों तक नहीं चल पाएगा। क्योंकि वो ठीक नहीं है। बोलना मेरा हक है, और मैं बोलूंगा...

Unknown said...

द्वारी.....बधाई...जो कुछ तुमने लिखा है..उसे कहने की हिम्मत सिर्फ अभी तक तुम ही कर पाए है..बाकी हम जैसे लोग सिर्फ कॉमेंट ही दे रहे हैं..फिलहाल....एक शेर पेशे नजर हैं-
देख अब ये जाविए परवाज कर दें,
हूर कबूतर को जरा सा बाज कर दे,
फिर उसी ऊंचाई पर सुल्तान है,
तू किसी कैदी को तीरंदाज कर दे....
एक कैदी तीरंदाज हो गया और कमाल का निशाना लगाया....बाकियों का इंतजार रहेगा...उम्मीदें खुद से भी हैं कि इससे प्रेरणा मिलेगी-
तुम्हारा
अनुराग

sarvesh upadhyay said...

हाय.. अनुराग सर , ये हाय खुशी का है गलत अर्थ मत निकालियेगा । आपकी अनुपस्थिती से इस डेस्क ने भाषाओं के जंगल का कुशल शिकारी खो दिया। लिखने आता नही है फिर भी आपको प्रतिक्रिया देने की गुस्ताखी कर रहा हूं ।

sarvesh upadhyay said...

अतिउत्तम