कविता: "हमें आदेशों से ख़तरा है"
अब जब सदन की सीढ़ियाँ
सिर्फ़ मौन की छाया में चढ़ाई जाएँगी,
जहाँ नारे नहीं,
सिर्फ़ सत्ता के चरण-स्पर्श सुने जाएँगे
तो बताओ, क्या ये वही लोकतंत्र है
जिसकी नींव में प्रश्न दबे थे?
क्या अब जनप्रतिनिधि
सिर्फ़ हस्ताक्षर करने की मशीन हैं?
क्या संसद
केवल शपथों की फाइल है,
या आत्मा की गूंज जहाँ चुप रहने को
संविधान कहा जाए?
हमने देश को जाना था
एक आवाज़ की तरह
जो खेतों में फसल की तरह लहराए,
जो गलियों में बच्चों की हँसी बन जाए,
जो किताबों से निकले,
और तख़्तों पर इंक़लाब की स्याही छोड़ जाए।
मगर अब तो
हर सवाल को "अव्यवस्था" कहा जा रहा है,
हर विरोध “अशोभनीय”,
हर नाराज़गी “देशद्रोह”
और हर उम्मीद “अवांछित”।
सदन की दीवारों पर
अब भाषण नहीं, आदेश लिखे जा रहे हैं।
नारेबाज़ी पर रोक है,
प्रतीकों पर पाबंदी,
मानो विरोध का मतलब ही
देशद्रोह हो गया हो।
सालों पहले जिस आँख से
हमने लोकतंत्र देखा था,
वो आँख आज तलाश रही है
कि आख़िर देश में जनता कहाँ है?
हर तरफ़ ताले हैं
सिर्फ़ दुकानों पर नहीं,
ज़ुबानों पर भी।
हर तर्क से डरती सरकार
अब हर सवाल को
साजिश कहती है।
और हम?
हम चुप हैं
क्योंकि हमारे शब्दों की तलाशी ली जाती है।
हम चुप हैं
क्योंकि अब संसद नहीं,
सिर्फ़ सहमति का रंग मंच बचा है।
मगर याद रखो
अगर विरोध अस्वीकार्य हो
और आज़ादी प्रदर्शन की दुश्मन बन जाए,
तो सबसे बड़ा ख़तरा
देश की सुरक्षा से नहीं,
देश की चुप्पी से होता है।
हमें इस चुप्पी से ख़तरा है ...
हमें इस आदेश से ख़तरा है ....
हमें उस लोकतंत्र से ख़तरा है, जिसमें लोग तो हैं पर जनता नहीं ...