Tuesday, February 9, 2010
शर्म आती है...
क्या कहूं... जब देश का कृषि, खाद्य आपूर्ति मंत्री किसी ठाकरे के दरबार पर जाकर मत्था टेक आता है... न न... किसानों की आत्महत्या या महंगाई रोकने के लिए नहीं (यह वे कर भी नहीं सकते), बल्कि आईपीएल में विदेशी खिलाड़ी खेल सकें, इसलिए... शर्म आती है...
एक ऐसे शहर में रहता हूं, जहां सरकार नाम की शायद कोई चीज़ नहीं... एक का ही राज है - ठाकरे... क्या आम, क्या ख़ास, सबको अमन से रहने, काम करने के लिए ठाकरे का ठप्पा चाहिए, वरना देश का एक तथाकथित जिम्मेदार मंत्री, पुलिस कमिश्नर या अपनी पार्टी के गृहमंत्री तक फरियाद नहीं ले जाता... शर्म आती है...
समझ नहीं आता, आखिर ऐसा क्यों है.... हर इजाज़त को 'मातोश्री' तक एड़ियां रगड़ने की दरकार क्यों होती है... क्या शर्मनाक बयान है - पहले बाल ठाकरे को प्रेजेंटेशन दिया जाएगा, और फिर अगर उन्हें अच्छा लगा, तब मुंबई में आईपीएल मैच खेले जाएंगे... शर्म आती है...
कौन हैं ठाकरे... आज तक उन्होंने कोई नगर निगम चुनाव तक नहीं लड़ा... वह चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं... फिर उन्हें इतनी इज्ज़त बख्शने का मतलब... क्या समाज और देश के लिए उन्होंने कोई ऐसा काम कर दिया है, जिसकी हमें भनक तक नहीं...
उस इंडस्ट्री की फिल्में देखता हूं, जिसमें शायद रीढ़ नहीं है... विदेश में बैठकर हीरो-सरीखे बयान देते हैं, लेकिन देश में आते हैं, तो नोट गंवा देने का डर तथाकथित बादशाह को भी घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देता है... क्यों हर बार वह 'माई नेम इज़ खान' की दुहाई देता नज़र आने लगता है... अरे, हद है... धर्म की आड़ आप तब ही लेते हैं, जब फंसे होते हैं... याद रखिए खान साहब, जिन लोगों ने आपको सिर-आंखों पर बिठाया है, वे किसी एक धर्म या मज़हब से ताल्लुक नहीं रखते... फिर आपकी बातों में इतनी संकीर्णता क्यों आ जाती है...?
अरे, जो बातें सच हैं... जो बातें कहने का माद्दा रखते हो, उन पर टिकने की कूवत क्यों नहीं है आपमें... क्यों यह कहना पड़ता है कि 'मातोश्री' में मत्था टेकने से गुरेज़ नहीं... क्यों उस शख्स के सामने सिर झुकाना चाहते हैं, जिस पर दंगे भड़काने का इल्ज़ाम है... जो खुद को हिन्दू धर्म और उसके रीति-रिवाजों का पुरोधा कहता है, मराठी भाषा का खेवनहार बनता है, लेकिन खुद इस बात से भी इठलाता है कि माइकल जैक्सन ने उसके घर के गुसलखाने का इस्तेमाल किया... हमेशा विदेशी शराब पीता है, उसके बच्चे-पोते अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं, लेकिन आम मराठी को वह महज़ इसलिए पीठ में छुरा घोंपने वाला करार दे देता है, क्योंकि उसकी पार्टी चुनाव में हार जाती है...
कोई तो पूछे, ठाकरे सीनियर, जूनियर, रूठे कोई भी हों, शहर या देश को बनाने में उनकी क्या भूमिका है... फिर भी सब उनके सामने नतमस्तक होते हैं... अगर ये शख्स इतने ताकतवर हैं, वाकई 'टाइगर' हैं, तो फिर क्यों शहर आतंकी हमलों का शिकार होता है, क्यों इनके रहते आतंकी शहर को लहुलूहान कर जाते हैं, ये लोग रोक क्यों नहीं देते शहर में हो रही गुंडागर्दी को... ऐसे किसी वक्त में कहां रहती है शिवसेना और कहां रहते हैं इनके शिवसैनिक... क्या ठाकरे की बहादुरी सिर्फ पिच खोदने, वैलेटाइन्स डे पर बच्चों को मारने पीटने, और फिल्मों के पोस्टर फाड़ने में ही है...?
केन्द्र से युवराज आते हैं, कुछ बोलते हैं... लेकिन उनके मंत्रियों में इतनी हिम्मत भी नहीं जुटती, कि इस गुंडागर्दी के खिलाफ मुंह खोलें... और बोलकर नहीं, करके बताएं, जतलाएं - कि मुंबई किसी ठाकरे की जागीर नहीं...
अगर ऐसा नहीं होगा - तो वाकई इस शहर में रहने में, और बॉलीवुड की फिल्में देखने में कम से कम मुझे तो शर्म आएगी... आप अपना तय कर लीजिए... कम से कम अपने चुने हुए नुमाइंदों से पूछिए तो सही... जिन लोगों को आप सत्ता नहीं देते, उनके घर जाकर वे साष्टांग क्यों करते हैं... एक बार उनसे पूछकर देखिए - क्या उनको इस मौकापरस्ती, और इस डर पर शर्म नहीं आती..
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1 comment:
Well Said.
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