Wednesday, February 3, 2010
रण या भड़ास?
हो सकता है स्क्रिप्ट के लिहाजे से फिल्म थोड़ी ठीक हो भी पर क्या ये संभव है कि प्रधानमंत्री का स्टिंग बगैर वेरीफाई किए ऑन एयर हो सकता है। क्यों रामू की हर फिल्म में कलाकार के चेहरे पर एक ही एक्सप्रेशन होता है, तनाव का। पूरब शास्त्री अच्छे रिपोर्टर जरूर हो सकते हैं लेकिन अच्छा रिपोर्टर भी मुस्कुरा कर काम तो कर ही सकता है। शिवा से लेकर अब तक रामू कैमरे के एंगल में बदलाव नहीं कर सके। कुछ सीन्स में तो वाकई सिर दर्द शुरू हो जाता है। अमिताभ जितने लंबे-चौड़े मोनोलॉग बोलते हैं उससे तो गंभीर दर्शक भी ऊकता जाएं।
मीडिया को आत्ममंथन और आत्मचिंतन दोनों की जरूरत है लेकिन क्या ये जरूरत रामू को भी नहीं। साफतौर पर लगता है कि 26 नवंबर के बाद ताज में टहलना जैसे विलासराव को भारी पड़ा और जिस तरह से मीडिया में रामू की थू-थू हुई उसकी भड़ास रामू ने 'रण' जैसी बेकार फिल्म बनाकर निकाली। एनडीटीवी इंडिया के फिल्म क्रिटिक विजय वशिष्ठ ने बिल्कुल ठीक कहा कि अमिताभ जिस तरह फिल्म बनने के बाद न्यूज चैनलों के दफ्तरों में टहल रहे थे अगर पहले घूमते तो शायद फिल्म थोड़ी अच्छी बन सकती थी। एक और बात अगर ये मीडियम इतना ही बुरा है तो फिल्म प्रमोशन के लिए रामू की फैक्ट्री ने इसका ही सहारा क्यों लिया?
यकीनन फिल्म ने पैसे, टीआरपी और मीडिया के सत्ता से गठजोड़ को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं लेकिन जैसे पूरब शास्त्री का सवाल थे वैसे ही मेरे भी मन उनसे ये पूछने को करता है कि इसमें नया क्या है? फिल्म आगे का कोई रास्ता नहीं दिखाती ये उसका काम भी नहीं है लेकिन अभिनय, एडिटिंग और रिसर्च के लिहाज़ा से ये एक और आग है जिसमें दर्शक झुलसने को मजबूर हैं।
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