Saturday, February 6, 2010
थियेटर नया हो गया... पुराना छूट गया...
कई दिनों से अपनी आत्मा - थियेटर - को ढूंढ रहा था... उसके साथ रूबरू होना चाह रहा था... लेकिन क्या करूं, कमबख्त क्रिकेट कवर करते-करते, अपनी ज़िंदगी भी ट्वेल्थ मैन सरीखी लगने लगी है... न्यूज़रूम की ज़िंदगी चाकरी से ज्यादा कुछ लगती ही नहीं... खैर, ये सब बातें फिर कभी... अभी मौसम है, अपने प्यार के साथ वक्त बिताने का...
कुछ महीने पहले मैं भोपाल में 'नया थियेटर' की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर मौजूद था... कई नाटक देखे - 'चरणदास चोर', 'आगरा बाज़ार', 'कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना' - लेकिन ऑडिटोरियम में बैठा हर शख्स शायद 'नया थियेटर' में पुराने हबीब तनवीर को ढूंढ रहा था... अजीब विडंबना थी, समकालीन आधुनिक चेतना के साथ जिस 'नया थियेटर' को हबीब साहब ने 1959 में शुरू किया था, उसकी ही 50वीं वर्षगांठ पर हबीब साहब स्टेज पर नहीं, स्टेज के नीचे बैठे थे... वह भी तस्वीर में...
'नया थियेटर' के कई नाटक मैंने कई बार देखे... कभी भोपाल, कभी दिल्ली में... उसी उत्साह से इस बार भी भरा हुआ था... भोपाल के इंदिरा गांधी मानव संग्रहालय में शो के दौरान तिल रखने की जगह नहीं थी... दर्शकों के भारी उत्साह की वजह से कुछ लोग ऑडिटोरियम के अंदर बैठे थे, और जिन्हें जगह नहीं मिली, वे प्रोजेक्टर पर नाटक देख रहे थे, लेकिन मैं कहीं और था... माफ कीजिए, किसी की काबिलियत को कमतर नहीं कर रहा, लेकिन सारे कलाकारों के बीच हबीब तनवीर का न होना खटक रहा था... मुझे लगा, शायद मंच पर यह कमी मुझे ही लग रही हो, शायद फिल्में देख-देखकर मेरे अंदर नाटक की समझ खत्म हो चली है... वजह परेशान करने वाली थी... नाटकों के लिए उमड़ी भीड़ के बीचोंबीच क्या मैं, और क्या मेरी सोच...
क्यों मैं 'जिन लाहौर नहीं वेख्या' की बूढ़ी दादी के किरदार में अपने मित्र बालो के नहीं रहने से परेशान हूं, क्यों मुझे स्टेज पर वह कैमिस्ट्री नज़र नहीं आ रही, क्यों मुझे हर कलाकार एकालाप करता नज़र आ रहा था... 'आगरा बाज़ार' देखते वक्त निगाहें पतंग की दुकान पर जाकर ठहर ही गईं, जहां हबीब साहब होते थे... 'चरणदास चोर' का सिपाही बहुत याद आया, जिसे मैंने लाठी थामे कई बार स्टेज और पोस्टरों में देखा था...
मन सालने लगा तो अपने साथी बासु मित्र, जो 'नया थियेटर' के पुराने कलाकारो का पुराना मित्र है, के साथ स्टेज के पीछे पहुंचा... मुलाकात हुई रविलाल सांगड़े से... सांगड़े 16 साल की उम्र से 'नया थियेटर' के साथ जुड़े हैं... जब उनसे हबीब साहब के न होने का जिक्र किया, सांगड़े जी ने कहा, मेरे लिए तो वह भगवान थे... उन्होंने मुझे रविया से रविलाल सांगड़े बनाया... आज बड़े-बड़े साहब मुझे रविलाल सांगड़े जी कहकर बुलाते हैं... सांगड़े 'नाचा पार्टी' में काम करते थे, हबीब साहब ने उन्हें देखा, और तब से वह 'नया थियेटर' से जुड़ गए...
खैर, अब नाम नहीं लिखूंगा... परंतु एक पुराने कलाकार ने कहा, साहब, हमन तो गांव के आदमी हैं, नाटक के अलावा और कुछ नहीं आता... पहले डरते थे, इत्ते लंबे-लंबे डॉयलाग याद कैसे करेंगे, लेकिन हबीब साहब सब करवा देते थे... पहले हबीब साहब थे, एक-एक डॉयलॉग पर घंटों लगा देते थे, लेकिन अब शहरी मन हैं, जो न हमारी सुनते हैं, न अनुभव बांटना चाहते हैं...
यह बात थोड़ी खटकी... शायद मुझे मेरी उकताहट, मेरी परेशानी का जवाब मिल रहा था... आखिरी दिन 'नया थियेटर' के निदेशक, पात्र-परिचय करवा रहे थे... खुद स्वीकारा कि जो जिम्मा हबीब साहब निभाते थे, उसे निभाने का सामर्थ्य या काबिलियत उनमें नहीं... फिर भी दर्शकों की मांग थी, जो मजबूरी बन गई... कई कलाकार ऐसे थे, जो दिल्ली, मुंबई, फिल्मों, सीरियल्स से छुट्टी लेकर नाटक करने भोपाल पहुंचे थे.... जज़्बा वाकई काबिले-तारीफ था... लेकिन शायद यह महज़ शौक था, आत्मा स्टेज पर नहीं थी....
हबीब साहब भी शहरी अभिजात्य वर्ग के थे... लेकिन 'नया थियेटर' बना, गंवइयों की टोली से, और उन्होंने कभी कलाकारों में भेदभाव नहीं किया... लेकिन अब वह स्टेज पर दिख रहा है... नाटकों का रिदम टूट रहा है... स्टेज पर कुछ कलाकार थियेटर वाले कम, फिल्म वाले ज्यादा दिख रहे हैं... पुराने कलाकारों में सारे वैसे नहीं, लेकिन कुछ ऐसे लग रहे हैं, जो थियेटर भी काम की तरह करने लगे हैं... उनकी आत्मा अब स्टेज पर नज़र नहीं आती...
लेकिन दिक्क़त सिर्फ थियेटर करने वालों के साथ नहीं है... कई बार हबीब साहब या लिटिल बैले ट्रूप जैसी महान संस्थाओं से जुड़े लोग ग्रुप के लिए वारिस खड़ा कर ही नहीं पाए... नतीजा, 'नया थियेटर' के पुराने होने के तौर पर सामने आ रहा है... वक्त है... चीजें बच सकती हैं... सबसे गुज़ारिश है, इन्हें बचा लीजिए...
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