Wednesday, February 15, 2012
मेरी पाती ...
मेरी पाती ...
120 घंटे से ज्यादा बीते ... 17 लाशें निकाली गईं ... मलबा हटने में 6 दिन से ज़्यादा लग गए ... हादसा 6 फरवरी सोमवार रात महाराष्ट्र के नागपुर में हुआ, एक निर्माणाधीन बिल्डिंग गिरी .... पहले दिन दो लाशें निकली ... लेकिन उसके बाद मलबे के नीचे शुरुआती 4 दिनों में कितनी सांसें धड़क रही थीं पता नहीं ... कितनी सांसें ख़ामोश हो गईं ये भी 6 दिनों बाद पता लगा... ये हालात किसी दूर दराज़ के शहर के नहीं उस शहर के हैं जो महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी है ... जहां बीजेपी के राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष के अलावा और भी कई दिग्गज रहते हैं, जहां अपनी महानगरपालिका है ... इन उपलब्धियां पर ये शहर इतराता लेकिन एक और हक़ीक़त सुनिए हादसे के घंटों बाद राहत और बचाव का काम शुरु नहीं हो पाया क्योंकि महानगरपालिका वाले इस शहर में खड़ी गाड़ियों में डीज़ल नहीं था ... उस शहर में मलबे में फंसे लोगों को निकालने में कोई फुर्ती नहीं दिखाई गई जहां देश का इकलौता सिविल डिफेंस कॉलेज है ...
और अब मेरे लिए सबसे दर्दनाक पहलू मौत के ये आंकड़े किसी के लिए सुर्खी नहीं ... अलबत्ता उस दिन शाहरुख का तमाचा ज़रूर हर अख़बार हर चैनल में सुर्खियां बटोर रहा था ...
क्या करें ... आप मुझे हारा हुआ कह सकते हैं ... गालियां दे सकते हैं क्योंकि मैं भी उसी सिस्टम में हूं ... कहता हूं निर्लज्ज हूं ... क्योंकि किसी बॉस पर चीख़ नहीं सकता ... कोने में दुबक कर लिखता हूं ... लगता है शायद कोई सुन ले ... कहीं चुनाव में कोटे-गठजोड़, जेनरल की उम्र, 2जी के बीच कोई समझे, कोई हुक्मरान रोए उन 16 ज़िंदगियों पर जो किसी और के ख्वाबों की ख़ातिर हमेशा के लिए सो गईं...
पिताजी कहते थे ... बेटा 25 तक कम्युनिस्ट रहोगे बाद में ज़िम्मेदारी आएगी तो सब भूल जाओगे ... चीख़कर जवाब देता था अपनी कमज़ोरी का मेडल मुझे मत दीजिए ... लेकिन वो शायद ठीक ही कहते थे ... आग तो बची नहीं कि दौड़कर वहां पहुंच जाऊं ... लिखने में भी कई दिन लग गए ... हर दिन कोई नई वजह कोई नई ख़बर ...
हर दिन चैनलों पर चौपाल बैठती है ... सहारा के स्पॉनरशिप लेने से, इस्राइली दूतावास पर हुए हमले तक सब पर चर्चा होती है ... इन मज़दूरों को कोई नहीं पूछता ...
ढोंग शायद मेरे अंदर तक भी भर चुका है ... नहीं तो कम से कम अपनी रोशनाई इतने दिनों तक बचा बचा कर नहीं रखता ... एक कमज़ोर शख्स जो अपने हिस्से की रोटी के लिए लड़ता रहता है, किसी और के लिए कुछ कहने लिखने पर भी बच बच कर रहता है ...
लिखते भी चैनलों पर नज़र जा रही है ... सबसे तेज़ पर लिखा आ रहा है ... ज़ुल्फों में लक ... कहीं चल रहा है राहुल की फाड़-नीति ...
उम्मीद तो नहीं कह सकता है ... ख़्वाब है ... शायद बदलेगा सबकुछ ...शायद मैं भी ...
एक दिन उठ जाऊं ... फैज़ के कुत्तों की तरह ...
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख़्शा गया जिन्हें ज़ौके-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाज़त में होते हैं इनके बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकर खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख़लक गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनियां को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
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