Wednesday, August 18, 2010
क्या आप मल विश्लेषण बीट अपनाएंगे...?
अमां, अगर मल विश्लेषण के लिए मनोचिकित्सक हो सकते हैं तो पत्रकार क्यों नहीं हो सकते...? य़कीन नहीं आता तो 'पीपली लाइव' देख लीजिए... फिल्म से बड़ी उम्मीदें तो नहीं पाली थीं, लेकिन दो गाने - 'चोला माटी के राम...' और 'सखी सइयां तो खूब ही कमात है, महंगाई डायन खाए जात है...' - दिल, कान और बटुए को हुई तकलीफ - सबको भा रहे थे... सोचा था, फिल्म में महंगाई, किसान और मीडिया का द्वंद्व होगा, लेकिन परेशान हुआ, क्योंकि फ़िल्म में न महंगाई को लेकर कोई संवाद, न किसान आत्मह्त्या क्यों करता है, इसकी जड़ में जाने की कोशिश... किसान सरकार से चंद रुपये हासिल करने के लिए आत्महत्या करता है, यह तर्क बहुत खोखला जान पड़ता है... एक तरह से यह उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला भी है, क्योंकि नगरों के जो लाल कभी गांव नहीं गए, उन्हें वाकई लगता है कि किसान पैसों के लिए कुछ भी करेगा... बंदर का नाच नचेगा... बकौल नत्था, किसी ठाकुर का गोड़ (पैर) भी पकड़ेगा...
टीवी के पत्रकार तो खैर, बॉलीवुड के लिए खुन्नस और बेवकूफी का विषय हैं ही... लेकिन हर पत्रकार टीआरपी की दौड़ में मल विश्लेषण करता या कद्दू में ओम ढूंढता दिखेगा, यह कहना भी सही नहीं है... यह सही है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया थोड़ी सनसनी, थोड़े मसाले में यकीन रखने लगा है, लेकिन इसके पीछे वजह भी बाज़ार है, अकेले माध्यम नहीं... आखिर विज्ञापन का मापदंड तो टीआरपी ही है... क्या फिल्म वाले प्रमोशन के लिए हर तरह के राइट्स बेचकर पैसा कमाने बाज़ार में नहीं उतरते... अब इसी फिल्म के सबसे हिट गाने को लिखने वाले के लिए आमिर के बटुए से कितने पैसे निकले, और गाने को बेचकर उन्होंने कितने पैसे कमाए, कोई उनसे जाकर पूछे...
कोई भी पत्रकार कद्दू में ओम या नत्था के मल विश्लेषण के लिए नहीं आता... किसी भी जर्नलिज्म स्कूल चले जाइए... अब यह पेशा चुनकर अपनाया जाता है, कइयों के पास दूसरे विकल्प होते हैं, लेकिन वे पत्रकार बनना चाहते हैं... सिर्फ सनसनी या ग्लैमर के लिए नहीं, बल्कि गंभीर पत्रकारिता के लिए भी... सरोकार और जनहित उसके ज़हन में होते हैं, लेकिन जब वह नौकरी करेगा तो उसे तनख्वाह भी चाहिए... महंगाई डायन उसे भी सताती है और चैनल मालिकों को भी...
पीपली लाइव - दरअसल एक और द्वंद्व से जूझ रही है... हिन्दी बनाम अंग्रेजी पत्रकारिता... फिल्म की निर्देशक शायद अंग्रेजी पत्रकारिता से जुड़ी रही हैं, इसलिए कहीं न कहीं थोड़ी प्रबुद्धता भी वह अंग्रेजी सेटअप में ही देखती हैं... हां, थोड़ा-बहुत एक छोटे हिन्दी अख़बार के पत्रकार में संवेदना भरकर फिल्म को बैलेंस करने की कोशिश ज़रूर की गई है...
मीडिया को आत्ममंथन और सुधार दोनों की ज़रूरत है, इससे इंकार नहीं, लेकिन सोचिए तो ऐसी फिल्में इसे एक मज़ाक के तौर पर पेश कर रही हैं... इनसे एक गंभीर ख़तरा यह है कि सिस्टम से निराश-हताश शख्स अब मीडिया को भी मज़ाक से ज्यादा और कुछ नहीं मानेगा...
मीडिया कुछ चीज़ें या कई चीज़ें गलत करता है, इससे भी इंकार नहीं, लेकिन मीडिया ग़लत ही करता है, यह कहना भी सही नहीं होगा...
फिल्म अभिनय और फ्लो के मामले में अच्छी है, लेकिन एक 'कम्प्लीट' फिल्म में थोड़ी कमी भी खटकती है... आख़िर में वही नया थियेटर के सारे कलाकार छत्तीसगढ़ी में बात करते हैं, जबकि उसी गांव के बाकी लोग बुंदेलखंडी में... मीडिया को कोसते-कोसते शायद संवाद लिखने में इन बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
Anurag babu ..aapki likhi tamaam batton se mein sehmat hoon..kai jagahon per film mein atishayokiti ki gayi hai....lekin agar mein ek tv patrakar ke nazariye se ise dekhoon aur un kaarnoo ko yaad karoon jinki wajah se maine ye pesha chuna that to nischit hi ye film jakhmo ko hara kar deti hai..ham sab ko aina dekhate hain...alag alg madhyam see ndtv ki gustakhi maaf ko hi le le..usi tarh se hame bhi aina dikhaya gaya hai...aina mein khud ki soorat acchi nazar nahi aa rahi ye alag baat hai.
Post a Comment