Thursday, September 13, 2007

तानाशाहों का फैसला
















18 मई को मिड डे के अंक में प्रकाशित लेख में कहा गया था कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल के बेटे को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के सीलिंग अभियान से लाभ पहुंचा है। इस मामले में हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए अखबार के संपादक और अन्य को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। अदालत ने 20 अगस्त को समाचार पत्र अवमानना मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था। अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि जस्टिस सब्बरवाल के बेटे ने मॉल डेवलपर्स के साथ गठजोड़ किया था। मॉल डेवलपर्स को जस्टिस सब्बरवाल के कार्यकाल के दौरान सीलिंग मुहिम से फायदा हुआ था। उसके बाद 19 मई का अंक भी कोर्ट में पेश किया गया। उस अंक में कार्टूनिस्ट इरफान खान ने जस्टिस सब्बरवाल पर एक कार्टून बनाया था। बाद में हाईकोर्ट ने कार्टूनिस्ट को भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा था।
और अब हाईकोर्ट ने 'मिड-डे' अखबार के संपादक, प्रकाशक, स्थानीय संपादक और कार्टूनिस्ट को अदालत की अवमानना का दोषी करार दिया है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि इस लेख ने न्यायपालिका की छवि को ठेस पहुंचाई है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक 'लक्ष्मण रेखा' निर्धारित कर रखी थी, अखबार ने इस रेखा को पार कर दिया। दोषी करार दिए पत्रकारों की सजा के बारे में कोर्ट 21 सितंबर को फैसला सुनाएगा।
मैं कतई ये नहीं कहना चाहता कि अखबार या संचार माध्यम अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें ... लेकिन देश की अदालतों का जो तानाशाही रवैया है उसपर लगाम कौन लगाएगा ... बंबई हाईकोर्ट के वरिष्ठ जज कुछ दिनों पहले ये कहते हुए सुने गए कि पांच करोड़ की रकम लेकर भी वो अपनी बेटी के लिए घर नहीं खरीद पाए, क्योंकि बिल्डर उनसे ब्लैक में पैसे मांग रहा था ... क्या उन्हें ये बात नहीं पता थी कि ये मामला वो खुद कोर्ट में उठा सकते थे ... ज्यूडिशियल एक्टिविज्म अपने घर से क्यों नहीं शुरू कर सकते ... ये और बात है कि नागपुर में 102 करोड़ में बिकी इनकी जमीन भी सवालों के घेरे में है लेकिन इस मामला पर सरकार और जनता यहां तक की मीडिया भी चुप है ... आखिर अदालत से पंगा कौन ले। लगता है आज भी जज खुद को पंच परमेश्वर समझते हैं ... लानत है ऐसी व्यवस्था ऐसी अदालत पर कि उनके खिलाफ जबान खोलना हिमाकत बन जाए ... कौन नहीं जानता कि न्यायपालिका में भी जड़ तक भ्रष्टाचार भरा हुआ है ... कोई जज बिना देखे देश के राष्ट्रपति के नाम वारंट जारी कर देता है तो ये कह कर उसका बचाव किया जाता है कि भई उसके पास इतना काम है कि वो रोजाना हर कागज देख नहीं सकता ... फिर तो साहब ये तर्क हर भ्रष्ट्र पुलिसवाले हर भ्रष्ट्र नेता पर हर भ्रष्ट कर्मचारी पर लागू होता है, क्योंकि आजकल फुर्सत किसके पास है? ऐसे में अदालतों की लक्ष्मण रेखा इतनी सख्त क्यों ... कोई जज गीता को राष्ट्र ग्रंथ बता दे तो भी आप संभल कर बोलिए ...
मामला अदालत की अवमानना का हो जाएगा ...
कोई जज कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो अदालत के चौहद्दे में उसे माईलॉर्ड ही कहिए ...
जब इनको ज्यूडिशियल काउंसिल में बांधने की बात चले तो अदालत के कामों में हस्तक्षेप की बात कर ये पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं ...
कुल मिलाकर लोकतंत्र के अंदर ये एक ऐसी तानाशाही है जिसके विरोध का अधिकार न सरकार के पास है और न ही जनता के ... आखिर क्यों कोई जज या न्यायपालिका से जुड़ा व्यक्ति भ्रष्ट हो तो उसके खिलाफ खबर नहीं छप सकती ... जहां तक कार्टूनिस्ट का सवाल है तो उसकी कूची को रोकना अभिव्यक्ति की हत्या जैसा है ... आखिर क्यों काले कोर्ट वालों से कोई ये नहीं पूछ सकता कि 3 लाख लोगों को इंसाफ कब मिलेगा (जिनके मामले उनके पास लंबित हैं) ... सरकार और व्य़वस्था को तो ये हर वक्त कठघरे में खड़ा करते हैं और जब खुद की बात आती है तो संसाधनों की कमी का रोना रोते हैं ....
इसलिए मैं पुरजोर तरीके से इस तानाशाही की मुखालफत करता हूं .... कोई मानता है तो माने इसे अदालत की अवमानना !!!!
आजाद देश में आखिर इस चौहद्दी से भी आवाज तो आए

Tuesday, September 11, 2007

सरकार के खिलाफ

विसर्जन की ऐसी तस्वीरों के खिलाफ सरकार ने पाबंदी लगा रखी है ... पर मैं इन तस्वीरों को छापकर इस बंदिश के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराता हूं ... हिम्मत है तो पहले ऐसे विसर्जन के खिलाफ पाबंदी लगाइये....

भेड़ चाल ...


मुए मुशर्रफ को लेकर कल लगभग पागलपन का रवैया देखकर एक बार फिर चैनल चरित्र की भेड़ प्रवृत्ति सामने आ गई। अमूमन पाकिस्तान से दो दो हाथ या क्रिकेट मैच को लेकर या फिर कभी वहां हिंसा के दृश्यों को लेकर ही न्यूज चैनलों के कैमरे उन्मादित होते हैं, लेकिन कल जिस तरह शरीफ की शराफत की जय जयकार और मुशर्रफ की मलानत हो रही थी ( मिशन के रूप में ) उसे देखकर ऐसा लगा कि कम से कम हिन्दी मीडिया ने अंतरराष्ट्रीय खबरों को तवज्जो न देने की तोहमत से तो गंगा स्नान करने की ठान ली है। भई वाह ! क्या संपाकदकीय दृष्टि थी ... जिस बात को विदेश मंत्रालय तक पाकिस्तान का अंदरूनी मामला मानकर टालता रहा वहां हम खबर नहीं मिशन की तरह पिल पड़े, हां एक सवाल नजरअंदाज करना था ... या यूं कहें कि जवाब नहीं था ... कि क्या नवाज के गद्दी पर नवाजने से दोनों देशों में एका बढ़ जाएगी ... क्या कश्मीर समस्या का रातों रात समाधान निकल आएगा ? जाहिरा तौर पर इस सवाल का जवाब किसी का पास नहीं था। दरअसल मामला पाकिस्तान प्रेम का नहीं था, मामला था कुछ मनोहारी विजुएल्स का जिससे दर्शक खिंचते चले आएं ... लेकिन कमबख्तों ने देश लौटने के लिए फ्लाइट ही करीब करीब दोपहर की पकड़ी, सारा मजा किरकिरा हो गया, फिर भी चंद घंटों के इस पाकिस्तान प्रेम ने एक सवाल का जवाब एक बार फिर दे दिया है कि वाकई हम सब भेड़ हैं ... भीड़ से भटके नहीं ... और खो जाने के डर से ग्रसित

ऐसे में पत्रकारिता छोड़कर पान दुकान चलाना ज्यादा मुफीद रहेगा।

Friday, September 7, 2007

डरपोकों का चिठ्ठा


चिठ्ठा जगत में जुड़ने से पहले लगा कि यहां शायद कुछ क्रांतिकारी मित्र मिल जाएं ... जिन्हें दुनियां के सामने आने में किसी भी कारण से डर लग सकता है लेकिन यहां ब्रेफ्रिकी होगी ... लेकिन मैं गलत था डरपोकों की एक पूरी जमात यहां भी मौजूद है ... छद्म नाम ... छद्म काम ... अरे साहब थोथली बातें सिर्फ दिल को खुश रखने के काम आती हैं ... कम से कम यहां तो खुल कर बोलिए उनके खिलाफ जिनके सामने जाने से भी आप डरते हैं।

Monday, September 3, 2007

हिन्दी ...







छोटा था ... टाट पट्टी वाले स्कूल में तो नहीं लेकिन किसी कॉन्वेंन्ट में भी पढ़ाई नहीं की ... नतीजतन अंग्रेजी में थोड़ी मात खाता रहा। भाई -बहन ने वक्त की नजाकत को समझते हुए लाल किताब ( रेन एंड मार्टिन ) का दामन थामा और मैं भटक गया हंस में ... क्रांति और अपनी भाषा का भ्रमजाल ... उलझा रहा ... बाद में देखा तो पाया कि हिन्दी का दरबार सजाने वाले राजेन्द्र यादव, नामवर जी सरीखे लोगों ने भी हिन्दी को ड्राइंग रूम तक सीमित रखा उनके बेड रूम में अंग्रेजी ही मौजूद थी ... किसी के बच्चे हिन्दीधारी नहीं बने ( धारी शब्द खुद की उपज है) ... खैर मेरा ये प्रयास कतई नहीं है कि हमारी हिन्दी पिछड़ी है ... लेकिन ये आपको मानना है कि आज अंग्रेजी प्रगति का द्योतक बन चुकी है ... आप अंग्रेजी में बांग न दें, लेकिन जरूरत पड़ने पर अगर आपने ये ट्रेन छोड़ी तो पैसों की रेल आपसे जरूर छूट जाएगी ... यकीन न हो तो हिन्दी चैनलों का माहौल देख लीजिए भले ही आपकी हिन्दी बहुत अच्छी हो, लेकिन तरक्की उसको मिलेगी जो बॉस के साथ अंग्रेजी में चोंच मिला सके। जिसके हाथ हिन्दी के की बोर्ड पर भले न चलें लेकिन जबान गज भर बाहर रहे ... जो काम न करे लेकिन बात बात पर ओ शिट ओ माई गॉड के मंत्रों का जाप करता रहे ... जो मेल लिखने के लिए रोमन का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दी की लिपि को मारने में अपना पूरा योगदान करते हैं ... और हमारे हिन्दी के पुरोधा सब जानने के बावजूद हमें तो भाषण देते हैं लेकिन अपना घर कभी ठीक नहीं करते ... चाहते हैं भगत सिंह पैदा हो लेकिन पड़ोसी के घर में ... जानता हूं मैं भी भ्रमित हूं ... शायद कुंठित भी
इसलिए आप दिखावे पर मत जाईये और अपनी अक्ल लगाईये !!!!

क्या यही है जनतंत्र ?

कुछ दिनों पहले इंडियन एक्सप्रेस में एक बच्चे की मौत की खबर पढ़ी !!! खबर नई नहीं थी ... कहने वाले जरूर कहेंगे "गीता का सार" ... खैर घटना हिमाचल की थी ... बच्चे के मां बाप मंडी से अपने बीमार बच्चे का ईलाज करवाने शिमला आए थे ... लेकिन सचिवालय के पास फंस गए कांग्रेस भाजपा की कुश्ती में ... बिचारे गिड़गिड़ाते रहे ... मांगते रहे अपने बच्चे को अस्पताल पहुंचाने की भीख लेकिन "जनप्रतिधियों " का दिल नहीं पसीजा ... मुख्यमंत्री एक विधायक की खिड़की से खड़े होकर अपने पहलवानों का उत्साहवर्धन कर रहे थे ... इसमें बेचारे गरीब की इल्तिजा कौन सुनता ... सही भी है ... जन तंत्र में तंत्र आप तो चलाते नहीं हैं ... बहरहाल दौड़कर जब वो अपने बच्चे को गोद में ही अस्पताल ले गए तब तक उसकी मौत हो चुकी थी ... मैंने सोचा शायद मेरा चैनल इस खबर को तो उठा ही लेगा ... लेकिन सलमान भगवान के आगे "एक बच्चे की मौत"
कौन पूछे!!!