Saturday, April 21, 2018

सामूहिक क़त्ल !

आहिस्ता-आहिस्ता
एक ख़ामोश साज़िश चल रही है ...
फिर एक दिन हो जाएगी
मौत...
कोई रपट नहीं लिखेगा
ना कोई मर्सिया पढ़ेगा...
ना होगा अंतिम संस्कार
जानती हो
बिटिया...
तुम जैसे-जैसे बड़ी होती जाओगी....
तुम्हारे बाप के अंदर की मां
सामूहिक रूप से मार दी जाएगी
आहिस्ता-आहिस्ता !

Friday, April 7, 2017

एक था इदलिब ....


इदलिब, माफ करना ओमरान दाक़नीश की एलेक्स से दोस्ती हम नहीं समझे...
तुम चाहते थे, ओमरान को घर पर लाना,झंडे, फूलों और ग़ुब्बारों के साथ उसका स्वागत करना....
तुम चाहते थे उसे परिवार देना, भाई कहना ....
कैथरीन भी तो उसके लिये तितलियों और जुगनू पकड़ने बाग़ में दौड़ती ...
फिर स्कूल में ओमर के साथ तुम सब खेलते ...
उसे जन्मदिन पर बुलाते, अपनी भाषा सिखाते... कैथरीन नीला बनी देती ...
और हां, तुम उसे जोड़ना और घटाना भी सिखाते ...

लेकिन माफ करना एलेक्स ...
इदलिब ने रौंद डाले उसके ज़ख्म ...
अब वो कभी नहीं लौटेगा ...
गोले-गोलियों और एक जहाज़ ने सुर्ख गुलाब के बागीचे को सफेद कर दिया ...
कुछ तो गिरा जिसने इदलिब के बच्चों के इंद्रधुनषी रंग चुरा लिये ...
तुम लोगों की तस्वीरें छिपा कर रख ली है मैंने अपने ज़ेहन में ...
कल दुनिया को दिखाऊंगा कि दूब पर गिरी है गिर्या-ए-शबनम
मैदान के कोने में उदास पड़ी वो फुटबॉल ...
भागते हुए उस बाप को जिसकी गोद एक सांस से दौड़ लगा रहा था...
लेकिन यकाय़क उन जह़रीले बादलों ने हर ख्वाब का दम घोंट दिया ...
ये शामे-ए-वीरां पूछेगी सवाल इंसानियत से ...
क्यों इदलिब के जैतून के खेतों में भर दिया ज़हर ...
माफ करना सीरिया ... इदलिब को दुनिया अख़बार के पन्ने पर समेट चुकी है...
हम फिर हो जाएंगे बेख़बर ...
माफी एलेक्स तुम्हारी मासूम सी छोटी ख्वाहिश,
ये बड़ी दुनिया पूरा नहीं कर सकती ...

Sunday, April 2, 2017

कृष्णम वंदे जगद गुरुम ...

प्रशांत जी के लिये खुला ख़त

आदरणीय प्रशांत जी आप विद्वान हैं, वकील हैं ... ऐसे में बग़ैर बात के आप बात नहीं लिखते होंगे ये मैं मानता हूं ... फिर कृष्ण और रोमियो को एक पलड़े में रखने में भी आपका कोई ध्येय होगा ... बहरहाल मेरे कृष्ण के लिये मेरे लिखने की कोई हैसियत नहीं है ... लेकिन मेरे कृष्ण अनुराग के प्रतीक हैं, सद्भभावना जानते हैं इसलिये मेरी आपसे कोई नाराज़गी नहीं है।

मैं मानता हूं कि शायद आपने आदि गुरू शंकराचार्य को पढ़ा होगा, नहीं भी पढ़ा हो तो कोई बात नहीं, श्रीमद भागवत पढ़ा होगा ... नहीं भी पढ़ा होगा तो कोई बात नहीं...
सिर्फ इतना बता दूं कि भागवत में राधा या रास का ज़िक्र नहीं है।
फिर भी कृष्ण-राधा-रास एक दूसरे के पूरक हैं, पर्याय हैं ... जानते हैं उन रसिकाओं के मन में सिर्फ और सिर्फ अपने कृष्ण को पाने की इच्छा थी। सामान्य भाषा में काम, क्रोध जैसे भाव जीवन के लिए सही नहीं माने जाते लेकिन जब बात अपने आराध्य के नजदीक जाने की हो तब कोई भी भाव गलत नहीं समझा जाता।

इसलिए आदिशंकर कहते हैं ... कृष्णं वंदे जगदगुरू

आपने एक पंक्ति में कृष्ण को रोमियो के समकक्ष खड़ा कर दिया, आपकी वकालत की किताबों में उसके लिये कुछ दलील होगी लेकिन क्या कृष्ण हमेशा नाचते गाते रहते थे, रास रचाते थे ... जनाब उन्होंने जीवन की प्रक्रिया को ही नृत्य बना लिया क्योंकि योगिक परंपरा में सृष्टि को हमेशा ऊर्जा या पांच भूतों के नृत्य के रूप में दर्शाया गया है। सृजन-प्रलय-प्रेम-सृष्टि सब नृत्य है ...
रास जीवंत है, परिस्थितियों से लड़ते वक्त निस्तेज नहीं होना ... जीवंत बने रहना मेरे श्रीकृष्ण रसिक हैं, लेकिन उनके रास में नैतिकता है सोलह हज़ार स्त्रियों को अपनाकर उन्होंने जो आदर्श बनाया उसको समझने में सालों लग गये लेकिन समझना मुश्किल है। रास में भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक सब है वो अलौकिक है आध्यात्मिक है।
आप ईश्वर को नहीं मानते, आप बिग-बैंग थ्योरी को मानते होंगे ( वैसे आपकी जानकारी के लिये 1930 की इस थ्योरी को कनाडा के विश्वविद्यालय ने 2016 में नकार दिया कहा कि ये बहुत गूढ़ है ) ... ऐसे में मेरे कृष्ण पर मेरा विश्वास मुझे कहता है इस ब्रह्मांड का विराट स्वरूप मेरे आराध्य का एक रूप है।
मेरे कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएं प्रकृति तत्व, दोनों मिलाकर सृष्टि बनाते हैं। इसलिये हर गोपी के साथ वो हैं।
मेरा मकसद आपको ये बताना नहीं है कि मेरे जैसे असंख्य कैसे जनमाष्टमी में जल की एक बूंद के बग़ैर अपने आराध्य को याद करते हैं, अपने विश्वास को आप पर थोपना भी नहीं चाहता लेकिन थोड़ा पढ़िये कृष्ण पर आपने छेड़ने की तोहमत लगा दी... 13-14 वर्ष में तो उन्होंने कंस का वध कर दिया था ... इसके पहले वो गोपिकाओं को छेड़ते थे लेकिन क्या उसे एक बालक के काम या आसक्ति के तौर पर आप देखते हैं।
विज्ञान के पास सृष्टि के बनने में बिग बैंग थ्योरी के अलावा कुछ नहीं है ... बतौर छात्र मुझे इसमें कभी स्पष्टता नहीं दिखी ... कभी एक अग्रज को पढ़ते हुए शायद लगा कि शायद मैं इसके ज्यादा क़रीब हूं ... भारतीय वाङ्मय में देवता द्युतियों को कहा गया। वह अन्तरिक्ष वासी कहे गए। कृष्ण गोविन्द कहे गए। गो का एक अर्थ 'प्रकाश' भी है और विंद का अर्थ है - 'जो जानता है'।  यानी जो प्रकाश को जानता है।
राधा का एक नाम दाक्षायणी भी है। प्रजापति दक्ष की 27 पुत्रियों को 27 नक्षत्र माना गया। फिर अनुराधा एक नक्षत्र भी है। कृष्ण के भी दो अर्थ है - काला और आकर्षण करने वाला। क्या कृष्ण का प्रादुर्भाव खगोल में कृष्ण पिण्ड के द्वारा तारों, ग्रहों और अन्य आकाशीय पिंडों को अपनी ओर खींचनें का द्योतक है?

कृष्णं वन्दे जगतगुरुं -

ब्रह्मांड में सर्वाधिक गुरूत्व बल युक्त कृष्ण पिंड की वन्दना। कृष्ण ब्रह्मांड नायक थे। कोई भी उनके आकर्षण से बच नहीं सका। उनकी सोलह हज़ार रानियाँ थी। मुझे यह सब आकाश का वर्णन लगता है। यह लगता है मानो इस वैज्ञानिक सत्य को तत्कालीन लोक चेतना के हिसाब से कथाओं में ढाल दिया गया हो।

सर, मेरे कृष्ण जितने मुझमें हैं, उतने आप में ... इसलिये कोई अपशब्द नहीं ...
क्योंकि मेरे कृष्ण कहते हैं

मधुराधिपते रखिलं मधुरम 

Friday, March 31, 2017

अनारकली ऑफ आरा

डिस्क्लेमर - अविनाशजी पुराने सहयोगी हैं, ये फिल्म की समीक्षा नहीं है!

अनारकली ऑफ आरा देखने के बाद यशवंत भाई की वॉल पर फिल्म के बारे में पढ़ा ... मैंने फिल्म इसके बाद देखी ... डर भी लगा कि कहीं पैसे ज़ाया ना हो जाए, लिहाज़ा साभार उनकी कुछ पंक्तियों से शुरुआत कर रहा हूं ...
"फिल्म का ज्यादातर हिस्सा फूहड़ गानों, काम कुंठाओं, कामुकता, वासना और जुगुप्साओं से भरा पड़ा है. आपको मिचली भी आ सकती है. फिल्म का पिक्चराइजेशन पूरी तरह से अनुराग कश्यप मार्का बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन बन नहीं पाई है.
ऐसे दौर में जब बहुत अलग अलग किस्म के टापिक पर सुंदर फिल्में बन और हिट हो रही हैं, सिर्फ वासना वासना वासना और काम काम काम से बनी फिल्म का औचित्य समझ नहीं आता. अनारकली का दलाल बार बार अनारकली को छेड़ता नोचता परोसता दिखता है लेकिन इससे कोई दिक्कत नहीं अनारकली को. सोचिए, जिसकी मानसिक बुनावट सिर्फ देने लेने भर की हो उसे एक प्रभावशाली से दिक्कत क्या, बस इतने भर से कि यह सरेआम करने की कोशिश की गई. ये ठीक है कि बदन पर आपका हक है और आप तय करेंगी किसे देना लेना है, लेकिन जब आप चहुंओर देती परसोती दिखती हैं तो आपको लेकर कोई खास नजरिया नहीं कायम हो पाता"
स्क्रोल ने अपनी समीक्षा आलोक धन्वा जी की एक कविता से शुरू की थी ...
"तुम / जो पत्नियों को अलग रखते हो / वेश्याओं से / और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो / पत्नियों से /
कितना आतंकित होते हो / जब स्त्री बेखौफ भटकती है / ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व / एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों / और प्रेमिकाओं में! "
असमंजस था, आजकल कम फिल्में देखता हूं इसलिये .... अविनाश भाई की फिल्म थी इसलिये देखना भी था .... बहरहाल .... कई समीक्षाओं के द्वंद के बाद फिल्म देख डाली!!
मैं शुरुआत से उस बच्ची की आंखों से बिंध गया, जिसकी आंखों में नाच का आकर्षण लोगों की जिस्मानी लालच से परे था ... जिसकी मां की बेबसी उसकी मासूम आंखें देख रही थीं ... जो छलकीं लेकिन आंसू अपने अंदर समेट कर!!
आलोक जी की कविता और यशवंत भाई के लेख से बने कैनवास पर बेरंग आंसू ख़ुद-बख़ुद एक तस्वीर बनाने लगे ... "मसाला रियलिज्म" ... शायद ये शब्द सटीक लगे..
मुझे अजीब लगा कि आज क्या कोई वीसी यूनिवर्सिटी कैंपस में अनारकली को नचाने की हिमाक़त करेगा, सो मसाला तो है ... लेकिन इस मसाले से जुबान उस समाज की जलेगी जिसको उसके "लेने-देने" पर ऐतराज़ है .... यहां यशवंत भाई से एक सवाल पूछना लाज़िमी लगा कि "मानसिक बुनावट" लेने-देने की होती है या पेट की भूख की !!! अगर ऐसा था तो दिल्ली जाकर उसने ये आसान रास्ता क्यों नहीं चुना ?? क्योंकि अपनी मां के गाने सुनकर टेप से वो उलझती गई!! माइक ऐसा पकड़ा जैसे किसी ने प्यार की थपकी दी हो ... वो अनारकली जिसने खुद कहा था "हम कोई दूध के धुले नहीं हैं"!!
हमें उसके गानों पर ऐतराज़ है, मुझे भी है ... लेकिन सच्चाई भी है कि भिखारी ठाकुर पर भोजपुरी ने काम नहीं किया ... फिर अनारकली तो रोटी की भरमाई थी ... उसने अश्लीलता और मनोरंजन का आटा गूंथा ... लेकिन साफ किया कि "उसके गाने" "उसकी देह" नहीं है ... उसपर रंगीला का अधिकार हो सकता है बाहुबली वीसी का नहीं वो भी पब्लिक में .... क्या ग़लत कहा ???
उसका प्रतिरोध थका ... जब पूरा सिस्टम, मोहल्ला उसके ख़िलाफ खड़ा हो गया ...
वो भागी, कमज़ोर हुई .... लेकिन शायद एक लंबी छलांग के लिये
कई लोगों ने अनारकली को पिंक के सामने खड़ा किया ... पिंक शहरी लड़कियों की कहानी थी, उनका द्वंद था .... वहां "नो का मतलब नो" था ... लेकिन यहां ये आज़ादी आप नहीं देना चाहते ... क्योंकि अनारकली नाचती थी !!
उसी "अनारकली और अनवर" के लिये किसी तिवारी जी के आगे आने का भी बिंब है..ना इमोशंस की भरमार, बस दिल्ली के घर से जाते वक्त हाथ हिलाकर विदा कहना.. बताना कि इस लड़ाई में मौन समर्थन है, मर्दों की मर्दानगी को ललकारने के लिये!!!
हां सच है कि फिल्म की थीम नई नहीं है, आपको लगेगा कि ये "अर्धसत्य" वाला पैरलल सिनेमा नहीं है, ना ही फिल्लौरी वाला मेनस्ट्रीम ... आरा की अनारकली इनके बीच खड़ी है ...
सस्ती लिपस्टिक, भड़कीले कपड़ों में कमर मटकाती अनारकली जानती है कि उसके गानों का मतलब क्या है, वो पैसों के लिये कमरे में भी जाती है ... लेकिन अपनी शर्त पर ...
उस स्याह सच्चाई के हम आदी नहीं है ... "चहुंओर देने" की बेबसी हमें नहीं दिखती... नहीं दिखता उस समाज का विद्रूप चेहरा जो छोटी बच्ची को घूर-घूरकर जवान बना देता है।
ऐसे में वो पिंक से अलहदा लड़ाई लड़ती है, किसी मर्द की मदद के बग़ैर ...
लड़ाई जीतकर ... वो चलती है सुनसान सड़क पर ... उसे रंगीन घाघरे में ... वो मुस्कुराहट थी ... खुद के होने के यक़ीन पर ... उस अनारकली पर जिसे थोथले आदर्श नहीं समाज ने गढ़ा .... एक स्याह और रंगीन कैनवास के बीच!!!

Thursday, October 13, 2016

मेरी रगों की स्याही के लिये ...



बहुत मुश्किल है पिता पर लिखना ....
बहुत मुश्किल है, उनके लिये कुछ लिखना जो कुछ नहीं कहते ...
भरे रहते हैं तालाब की तरह, नदी की तरह नहीं बहते ...
घरभर की छांव के लिए, जो रोज़ धूप सहते ...
दुनियाबी तार सप्तक में जो रोज़ नये स्वर गहते
पापा...
टेलिफोन पर आपकी धड़कने सुन नहीं पाता ...
स्मृतियां ले जाती हैं, उस कैनवास पर ...
नन्हीं हथेली से जब तौलता था आपकी थपकी ...
आपके साये से चिपकी रहती थी मेरी आंखें ...
कैसे आपकी कमीज़ से मेरे सौदे पर खुश रहते थे आप ...
कैसे मां की घुड़की पर, मैं मान जाता था आपकी अठन्नी से ...
रोज़ आपकी लड़ाई देखता रहता था ...
देखता था कि कैसे पिता कभी नहीं हारते ...
आपकी लड़ाई में, मैं अपनी जीत ढूंढ ही लेता था ...
अलसाई सुबह और बिस्तर की सिकुड़न में टटोलता हूं आपको ...
शब्दों के भीतर आप आसानी से नहीं आते ...
तस्वीरों में, फोन की घंटी में ...
देख नहीं पाता आपके पैरों का दर्द, कहते नहीं आप ज़रा सिर पर हाथ फिरा दो...
और भी कई यादें हैं, पूरे घर में यहां वहां बिखरी पड़ी हैं ...
जब रात में देखता हूं तारे, मेरे अकेलेपन के आकाश में आ जाते हैं आप ...
मेरी उंगलियों में आप धड़कने लगते हैं, मेरी आंखें में सारे मंज़र हो जाते हैं कैद
जहां आपकी आवाज़ टूटती नहीं, अनंत तक मेरे साथ होती है ...
ना होता है दुख, ना बेचैनी .... सिवाय आपके मेरे उस अनंत में
पापा
जाने क्यों, आपमें मुझे थोड़ी-थोड़ी मां भी नज़र आती है ...
मेरी ख़ामोशी में छुपकर आपका जहां रहता है ..
हर दिन वो मुझसे यही कहता है ...
आप हैं तो है मेरा वजूद!

Thursday, February 18, 2016

साथी कन्हैया के लिए खुला ख़त

प्रिय कन्हैया,
मुझे नहीं पता तुम जेल से कब बाहर आओगे, मुझे ये भी पता है कि धर्म में तुम्हारी आस्था नहीं है, फिर भी कोशिश है अपने तर्कों के साथ तुम्हारे साथियों को मनाने की ... समझाने की कोशिश करूं ...
सबसे पहले बता दूं कि बोली के लिए जेल का मैं पक्षधर नहीं हूं।
तुम यक़ीनन पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रखते होगे, मैं डिस्क्लेमर पहले लगा दूं मैं रखता हूं ... गांधी का हिन्दू हूं, हर धर्म में आस्था है सबको प्रेम करता हूं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं, चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’
कई मनीषी हिन्दुत्व को लेकर, राष्ट्र को लेकर अपने विचार रख रहे हैं, उद्वेलित हो रहे हैं। वामपंथियों के अपने मत हैं, दक्षिणपंथियों की अपनी सोच ... मेरे जे़हन में करपात्री जी आते हैं जब वो कहते हैं प्राणियों में सद्भभावना हो ... वहां सिर्फ वामपंथ की तरह मज़दूरों की एकजुटता नहीं है या दक्षिणपंथ की तरह हिन्दू नहीं है। ये सोच कितनी व्यापक है, समग्र है। लेकिन चाहे वाम हो या दक्षिण वैचारिक मतभिन्नता को स्वीकार नहीं कर पाने की एक कमज़ोरी सी लगती है।
तुमने अपने भाषण के शुरुआत में सावरकर को हिन्दूवादी घोषित कर दिया, तुमने ये भी कहा कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी, पर ये बताने से चूक गये कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और भाकपा जिसका इतिहास 1929 भी है, कोई 64 भी कहता है उस वक्त वाम विचाराधारा के लोगों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की आलोचना की और सुभाष चंद्र बोस की भी तीखी निंदा की।
साथी तुम्हारे भाषण को पढ़ा सुना, तुम्हें बाबा साहेब पर बहुत भरोसा है होना भी चाहिए ... फिर तुम ये भी जानते होगे कि इस देश की संस्थाओं का आधार वही संविधान हो जो बाबा साहेब और उनके सहयोगियों की कलम से निकला था, ऐसे में देश की सर्वोच्च अदालत ने जो फैसला दिया उसपर अगर कोई ये कहे कि "अफज़ल के हत्यारों को"" तो मेरा सवाल है कि कौन हैं हत्यारे ?? संविधान या सुप्रीम कोर्ट। ये तर्क है कि सर्वोच्च अदालत ने फैसले में लिखा है "सामूहित अंतकरण की सुंतष्टि", पेज 80 आख़िरी पैरा लेकिन साथी ये "सिलेक्टिव परसेप्शन" है पूरे पैरा में सारे सबूतों का भी ज़िक्र है और यकीनन ये सबूत जिरह में काफी साबित हुए।
दूसरा मुद्दा शिक्षा के बजट को लेकर है, कई लोगों ने इसे लेकर आंदोलन किया ... सही भी है शिक्षा बजट में सरकार ने कमी की है, लिहाज़ा मैं भी आपके साथ हूं। लेकिन क्या कभी आपके संगठन ने उन लोगों के ख़िलाफ आवाज़ उठाई जो मौलिक अनुसंधान के नाम पर चोरी से पर्चे छपवाते रहते हैं, जो चोरी को हक़ समझ कर बैठे रहते हैं?
आपके पूरे संबोधन में ग़रीबों के तौर पर सिर्फ महिलाओं और मुस्लमानों की बात हुई सही है ... लेकिन गरीबी क्या धर्म देखकर आती है, क्या हिन्दू, सिख, ईसाइयों में ग़रीब नहीं है?? मनुवाद से आप हिन्दुओं को संबोधित कर रहे हैं, क्या इस्लाम में सैय्यद- जुलाहे के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता रखता है?
पूंजीवाद एक पार्टी की जागीर नहीं है, लेकिन निशाने पर सिर्फ बीजेपी-संघ रखने से मुद्दा कमज़ोर होता है, जिसकी सरकार लंबे अरसे तक रही अगर वो पार्टी संवेदना जताने पहुंचे तो समझिए ये सियासत है और कुछ नहीं।
दूसरे विश्वविद्यालयों में आपके साथी नगालैंड, कश्मीर के लिए भी आज़ादी मांगने लगे, ये भी अभिव्यक्ति की आज़ादी है, ये भी इसी महान देश ने दी है।
तुमने बिल्कुल सही कहा कौन है कसाब, कौन है अफज़ल गुरू ?? क्यों ये शरीर में बम बांधकर मरने को तैयार हो जाते हैं, इस पर यूनिवर्सिटी में बहस नहीं होगी तो और कहां होगी, बिल्कुल होगी ... ज़रूर करो ... लेकिन जो सुरक्षाकर्मी संसद पर तैनात थे या हमलों में पराग जैसे लड़के जो 10 साल तक कोमा में रहते हैं उनकी क्या ग़लती थी?? कभी सोचा है उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी, उनपर हमला क्यों हुआ इसपर बहस के लिए मंच तैयार रखा है!!
ठीक है ब्राह्मणों ने बहुत अन्याय किया, उनको सज़ा देना लेकिन जब बाबासाहेब ने कहा कि आरक्षण पर 10 साल में समीक्षा होना चाहिए और उसीको मोहन भागवत 60 साल बाद दुहराएं तो वो दलित विरोधी कैसे हो जाते हैं?? कभी सवाल पूछा है कि देवयानी ख्रोबागडे के आईएएस पिता की बेटी को और आगे तक भी आरक्षण जारी क्यों रहे?? क्यों देश के औसत में 45 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं तो 5 फीसदी ब्राह्मण आबादी के 55 फीसदी ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों पर बातचीत नहीं होती ?? उनको आगे लाने की क्या योजना है ??
मनुवाद-मनुवाद कहने से समस्या ख़त्म तो नहीं होगी ...
कोई बच्चा ब्राह्मण-राजपूत-दलित कोख चुनता नहीं है, वो हिन्दू के घर में पैदा हो या मुस्लमान के घर इस पर उसका अधिकार नहीं है ... ऐसे में जन्म से कबतक उसकी सज़ा तय होती रहेगी, इस सवाल को सिर्फ संघी कहकर टाला नहीं जा सकता !!
समस्या तो है लेकिन समाधान सिर्फ नारों से तो नहीं होगा ... समग्र विकास के लिये मज़दूर भी ज़रूरी हैं, पूंजीवादी भी ... ब्राह्मण भी दलित भी, हिन्दू भी मुस्लमान भी
इसलिए करपात्री जी को याद करो ... मार्क्स या लेनिन से बड़ी बात कही है "प्राणियों में सद्भभावना हो " ... दास कैपिटल से वक्त मिले तो कबीर को पढ़ना एक दोहे में सब समेट लिया है
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय । मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥

Wednesday, January 20, 2016

भूख ख़बर नहीं है ...




जो भूखे थे
वे सोच रहे थे रोटी के बारे में
जिनके पेट भरे थे
वे भूख पर कर रहे थे बातचीत
गढ़ रहे थे सिद्धांत
ख़ोज रहे थे सूत्र ....
कुछ और लोग भी थे सभा में
जिन्हौंने खा लिया था आवश्यकता से अधिक खाना
और एक दूसरे से दबी जबान में
पूछ रहे थे
दवाईयों के नाम ...
- कुमार विश्वबंधु

वो चुपचाप ऊंचे खंभे पर चढ़ गया क्योंकि कुछ लड़कों ने उसे कहा थाली में भरपेट खाना मिलेगा खंभे पर चढ़ जाओ ... फिर वो चुपचाप खंभे से उतर गया क्योंकि पुलिस वालों ने कहा थाली में भरपेट खाना मिलेगा खंभे से उतर जाओ।
अधनंगा था वो, भूखा-प्यासा ... लोग कह रह थे पागल है ...
वाकया मुंबई के परेल इलाके में हुआ ... वो परेल जहां कभी दर्जनों मिलें थीं, मज़दूर रहते थे। आज वहां एमएनसी दफ्तर, मॉल, पांच सितारा होटल हैं ... लोगों को रफ्तार देने मोनोरेल बन रही है, वो पागल उसी खंभे पर चढ़ा था... रोटी खाने।
टीवी पर बहस हो रही है, तमाम स्वनामधन्य संपादक रोहित से लेकर पाकिस्तान पर बहस कर रहे हैं, बातें वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया में संभावित मंदी पर भी हैं। बातें दलित बनाम ग़ैर दलित की हैं, रोहित के पक्ष में खड़ा रहने की होड़ है ... ऐसे में ये बात अप्रिय लगेगी फिर भी कहूंगा ... 28 साल का रिसर्च स्कॉलर इतना कमज़ोर है कि चंद दिनों के निलंबन से जान दे देता है??  इनके संगठन का नाम है अंबेडकर-पेरियार सर्किल संस्था ने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया, उस याकूब को जिसे बार बार इंसाफ के रास्ते मिले आधी रात में भी ... लेकिन उन्हें इंसाफ देने वाला कोई नहीं था जो मुंबई बम विस्फोट में मारे गये। कौन से बाबा साहेब कोई बताएगा क्या सीख थी उनकी ?? " शिक्षित बनो संघर्ष करो ".. फिर कोई रोहित से सवाल तो पूछे उसने संघर्ष का रास्ता क्यों नहीं चुना??
   इस देश में एक ही जात है, एक ही धर्म है जिसमें पैदा होने वाला शख्स हर वक्त शोषित होता है वो है ग़रीबी !!वो ग़रीबी जिसके वजह से वो पागल खंभे पर चढ़ गया !!
लेकिन भूख़ ख़बर नहीं है। भूख़ पर सवाल उठते हैं तो मजमा नहीं लगता मंडलियां नहीं जमतीं। संपादकों को स्वाभाविक सवाल नहीं दिखता। मन परेशान है अपनी थाली से नाराज़गी है। भूख पर सवाल होते तो मंदिर-मस्जिद नहीं होता, मंडल-कमंडल नहीं होता सर्वण-दलितों की एक जात होती, हिन्दू-मुस्लमानों में भेद नहीं होता, पाकिस्तान में बम विस्फोट में किसी के मरने से भी हम ख़ुश नहीं होते, कोई कसाब 25000 रुपये के लिए पाकिस्तान से आकर हिन्दुस्तान में गोलियां नहीं चलाता, सीरिया की भूख से आंसू ज़ारो-क़तरा बहते।
     कोई अंबेडकर, कोई आरएसएस, कोई कांग्रेस सर्कल इस कमबख़्त भूख की बात क्यों नहीं करती। स्मृतियों से कमबख़्त वो पगला अधनंगा भी नहीं जाएगा। बहुत आसान है कहना पागल वो हैं जिन्होंने उसे खंभे पर चढ़ाया या वो जो भरी थाली के नाम पर खंभे पर चढ़ गया।
    पर आप कीजिए मालिक ख़ूब बहस कीजिए देश-दुनियां की तमाम मुसीबतों पर सबको सुलझा दीजिए !! वो पगला कहीं दिखे तो उसे पकड़ लीजिए ख़ूब मारिये, साले ने मेरी नींद ख़राब कर दी। आप सब चद्दर तानिये आराम सो जाइये सपने में अंबेडकर आएं, गोलवलकर आएं या गांधी एक सवाल कीजिएगा ज़रूर धूमिल के ज़रिये पूछ रहा हूं क्या आज़ादी तीन थके रंगों का नाम होता है, या उसका कोई ख़ास मतलब भी होता है।
पता लगे तो मेरे साथी सुनील सिंह, सांतिया या मुझसे संपर्क कीजिएगा
बाक़ी की ख़बरों के लिए लुटियन ज़ोन है !!
”भूख है तो सब्र कर, रोटी नही तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा”