डिस्क्लेमर - अविनाशजी पुराने सहयोगी हैं, ये फिल्म की समीक्षा नहीं है!
अनारकली ऑफ आरा देखने के बाद यशवंत भाई की वॉल पर फिल्म के बारे में पढ़ा ... मैंने फिल्म इसके बाद देखी ... डर भी लगा कि कहीं पैसे ज़ाया ना हो जाए, लिहाज़ा साभार उनकी कुछ पंक्तियों से शुरुआत कर रहा हूं ...
"फिल्म का ज्यादातर हिस्सा फूहड़ गानों, काम कुंठाओं, कामुकता, वासना और जुगुप्साओं से भरा पड़ा है. आपको मिचली भी आ सकती है. फिल्म का पिक्चराइजेशन पूरी तरह से अनुराग कश्यप मार्का बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन बन नहीं पाई है.
ऐसे दौर में जब बहुत अलग अलग किस्म के टापिक पर सुंदर फिल्में बन और हिट हो रही हैं, सिर्फ वासना वासना वासना और काम काम काम से बनी फिल्म का औचित्य समझ नहीं आता. अनारकली का दलाल बार बार अनारकली को छेड़ता नोचता परोसता दिखता है लेकिन इससे कोई दिक्कत नहीं अनारकली को. सोचिए, जिसकी मानसिक बुनावट सिर्फ देने लेने भर की हो उसे एक प्रभावशाली से दिक्कत क्या, बस इतने भर से कि यह सरेआम करने की कोशिश की गई. ये ठीक है कि बदन पर आपका हक है और आप तय करेंगी किसे देना लेना है, लेकिन जब आप चहुंओर देती परसोती दिखती हैं तो आपको लेकर कोई खास नजरिया नहीं कायम हो पाता"
स्क्रोल ने अपनी समीक्षा आलोक धन्वा जी की एक कविता से शुरू की थी ...
"तुम / जो पत्नियों को अलग रखते हो / वेश्याओं से / और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो / पत्नियों से /
कितना आतंकित होते हो / जब स्त्री बेखौफ भटकती है / ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व / एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों / और प्रेमिकाओं में! "
असमंजस था, आजकल कम फिल्में देखता हूं इसलिये .... अविनाश भाई की फिल्म थी इसलिये देखना भी था .... बहरहाल .... कई समीक्षाओं के द्वंद के बाद फिल्म देख डाली!!
मैं शुरुआत से उस बच्ची की आंखों से बिंध गया, जिसकी आंखों में नाच का आकर्षण लोगों की जिस्मानी लालच से परे था ... जिसकी मां की बेबसी उसकी मासूम आंखें देख रही थीं ... जो छलकीं लेकिन आंसू अपने अंदर समेट कर!!
आलोक जी की कविता और यशवंत भाई के लेख से बने कैनवास पर बेरंग आंसू ख़ुद-बख़ुद एक तस्वीर बनाने लगे ... "मसाला रियलिज्म" ... शायद ये शब्द सटीक लगे..
मुझे अजीब लगा कि आज क्या कोई वीसी यूनिवर्सिटी कैंपस में अनारकली को नचाने की हिमाक़त करेगा, सो मसाला तो है ... लेकिन इस मसाले से जुबान उस समाज की जलेगी जिसको उसके "लेने-देने" पर ऐतराज़ है .... यहां यशवंत भाई से एक सवाल पूछना लाज़िमी लगा कि "मानसिक बुनावट" लेने-देने की होती है या पेट की भूख की !!! अगर ऐसा था तो दिल्ली जाकर उसने ये आसान रास्ता क्यों नहीं चुना ?? क्योंकि अपनी मां के गाने सुनकर टेप से वो उलझती गई!! माइक ऐसा पकड़ा जैसे किसी ने प्यार की थपकी दी हो ... वो अनारकली जिसने खुद कहा था "हम कोई दूध के धुले नहीं हैं"!!
हमें उसके गानों पर ऐतराज़ है, मुझे भी है ... लेकिन सच्चाई भी है कि भिखारी ठाकुर पर भोजपुरी ने काम नहीं किया ... फिर अनारकली तो रोटी की भरमाई थी ... उसने अश्लीलता और मनोरंजन का आटा गूंथा ... लेकिन साफ किया कि "उसके गाने" "उसकी देह" नहीं है ... उसपर रंगीला का अधिकार हो सकता है बाहुबली वीसी का नहीं वो भी पब्लिक में .... क्या ग़लत कहा ???
उसका प्रतिरोध थका ... जब पूरा सिस्टम, मोहल्ला उसके ख़िलाफ खड़ा हो गया ...
वो भागी, कमज़ोर हुई .... लेकिन शायद एक लंबी छलांग के लिये
कई लोगों ने अनारकली को पिंक के सामने खड़ा किया ... पिंक शहरी लड़कियों की कहानी थी, उनका द्वंद था .... वहां "नो का मतलब नो" था ... लेकिन यहां ये आज़ादी आप नहीं देना चाहते ... क्योंकि अनारकली नाचती थी !!
उसी "अनारकली और अनवर" के लिये किसी तिवारी जी के आगे आने का भी बिंब है..ना इमोशंस की भरमार, बस दिल्ली के घर से जाते वक्त हाथ हिलाकर विदा कहना.. बताना कि इस लड़ाई में मौन समर्थन है, मर्दों की मर्दानगी को ललकारने के लिये!!!
हां सच है कि फिल्म की थीम नई नहीं है, आपको लगेगा कि ये "अर्धसत्य" वाला पैरलल सिनेमा नहीं है, ना ही फिल्लौरी वाला मेनस्ट्रीम ... आरा की अनारकली इनके बीच खड़ी है ...
सस्ती लिपस्टिक, भड़कीले कपड़ों में कमर मटकाती अनारकली जानती है कि उसके गानों का मतलब क्या है, वो पैसों के लिये कमरे में भी जाती है ... लेकिन अपनी शर्त पर ...
उस स्याह सच्चाई के हम आदी नहीं है ... "चहुंओर देने" की बेबसी हमें नहीं दिखती... नहीं दिखता उस समाज का विद्रूप चेहरा जो छोटी बच्ची को घूर-घूरकर जवान बना देता है।
ऐसे में वो पिंक से अलहदा लड़ाई लड़ती है, किसी मर्द की मदद के बग़ैर ...
लड़ाई जीतकर ... वो चलती है सुनसान सड़क पर ... उसे रंगीन घाघरे में ... वो मुस्कुराहट थी ... खुद के होने के यक़ीन पर ... उस अनारकली पर जिसे थोथले आदर्श नहीं समाज ने गढ़ा .... एक स्याह और रंगीन कैनवास के बीच!!!