

कल इस्तीफा दिया, प्रत्याशित था कि बॉस से घुड़की पड़ेगी ... सो फोन आने के बाद कान तैयार थे ... लेकिन अगले दो तीन मिनट तक कानों में जो शहद घुलता रहा उससे चौथे खंभे के संरक्षक समाजवादियों का साम्राज्यवाद खुलकर सामने आ गया पेश है कुछ झलकियां ...
तुम्हें मैं प्रिंट से उठा कर लाया ... तुम्हारे लिए कितने लोगों ने मुझे फोन किया ... आइंदा से कभी मुझे फोन मत करना ...
और भी कुछ कुछ !!!!!
ऐसा लगा कि गोया, प्रिंट वो भी पीटीआई जैसी संस्था में काम करना कोई ऐसा पेशा हो जिससे दो बाइट में खुद को समेटे लोग दोयम दर्जे का मानते हैं, ऐसी कई बातें दिमाग में भरे जा रही थीं ... सोचने पर मजबूर हो रहा था कि क्या मैं सिफारशी लाल हूं ... इस संस्था में आने से पहले मुझे एक प्रश्न पत्र दिया गया था जिसके सारे सवाल मैंने हल किए ... कॉपी लिखने में अपनी तरफ से कोई गलती नहीं की ... ढाई साल के सफर मैं कई दिन और रात बगैर छुट्टी की परवाह किए समर्पित किए ...
फिर ऐसी बातें ???? ...
मजे कि बात ये है कि जो सूरमा मेरे इस्तीफा देने से हत्थे से उखड़ रहे थे उन्होंने खुद भी कई घाट का पानी पिया हुआ है, फिर क्या उन्होंने ये काम भविष्य में आगे बढ़ने के लिए नहीं किया ???
भई, हम किसी सरकारी नौकरी में तो हैं नहीं जो वैकेन्सी निकले हम फॉर्म भरें और कोई स्वस्थ प्रतियोगिता के जरिए नौकरी मिल जाए ... इन साहब ने भी किसी से बात की होगी किसी अंदरवाले!! को खाली जगह के बारे में पता लगाने को कहा होगा ... फिर एप्लाई किया होगा ...
फिर मेरे ऐसा करने पर मैं उनके रहमोकरम पर पला बढ़ा ... कैसे ???? ये सवाल मुझे कचोटता जा रहा था ... जिस संस्था से वो मुझे उठा कर लाने की बात कर रहे थे उसमें तकरीबन देश के हर कोने से हजारों परीक्षार्थी बैठते हैं, तीन घंटे की परीक्षा होती है फिर महीनों के इंतजार के बाद रिजल्ट आता है ... फिर तीन संपादकों के पैनल के सामने आपका इंटरव्यू होता है ... और यकीन मानिए इसका स्तर ऐसा होता है जिसमें इन महानुभाव के कई शेर घास खाने को मजबूर हो जाएंगे।
बहरहाल कहते हैं कि तरक्की आदमी के सिर चढ़ कर बोलती है ... लेकिन यहां तो तरक्की आदमी के एक नहीं दस सिरों पर चढ़ बैठी है ... उसे दशानन बनने पर मजबूर कर रही है ... लेकिन शायद हमारे आका !!!! एक बात भूल जाते हैं कि घमंड दशानन का तक नहीं टिका फिर हम और आप क्या चीज हैं। इन्हें शायद इस बात का भी इल्म नहीं रहता कि हम इनके नीचे नहीं बल्कि इनके साथ काम करते हैं ... लेकिन क्या करें पापी पेट कभी विरोध नहीं करता ... कभी नहीं कह पाता कि संविधान ने हमें भी 19 (1) a दिया है ... हम भी बराबर के हैं ... या यूं कहें कि हां हम कमजोर हैं ... जवाब मुंह पर नहीं दे पाया तो कलम की आड़ में खुद को छिपा लिया।
कुल मिलाकर ऐसे घमंडी लोगों के लिए कॉलेज के दिनों का एक जुमला याद आता है कि
तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी ....